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________________ आरुप्पनिद्देसो १९७ तस्सेवं पुनप्पुनं आवज्जयतो मनसिकरोतो पथवीकसिणादीसु रूपावचरचित्तं विय आकासे आकासानञ्चायतनचित्तं अप्पेति । इधा पि हि पुरिमभागे तीणि चत्तारि वा जवनानि कामावचरानि उपेक्खांवेदनासम्पयुत्तानेव होन्ति, चतुत्थं पञ्चमं वा अरूपावचरं । सेसं पथवीकसिणे वृत्तनयमेव'। ७. अयं पन विसेसो–एवं उप्पन्ने अरूपावचरचित्ते सो भिक्खु यथा नाम यानप्पुतोळिकुम्भमुखादीनं अतरं नीलपिलोतिकाय वा पीतलोहितोदातादीनं वा अञ्ञतराय पिलोतिकाय बन्धित्वा पेक्खमानो पुरिसो वातवेगेन वा अञ्जेन वा केनचि अपनीताय पिलोतिकाय आकासं येव पेक्खमानो तिट्ठेय्य, एवमेव, पुब्बे कसिणमण्डलं झानचक्खुना पेक्खमानो विहरित्वा ‘“ आकासो आकासो" ति इमिना परिकम्ममनसिकारेन सहसा अपनीते तस्मि निमित्ते आकास येव पेक्खमानो विहरति । एतावता चेस "सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमा पटिघसञ्जनं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्जनं अमनसिकारा 'अनन्तो आकासो ' ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरती " (अभि० २ / २९५ ) ति वुच्चति । ८. तत्थ सब्बसो ति । सब्बाकारेन, सब्बासं वा अनवसेसानं ति अत्थो । रूपसञ्जनं तर्क वितर्क करते समय नीवरण दब जाते हैं, स्मृति स्थिर होती है, उपचार द्वारा चित्त एकाग्र होता है । पुनः वह उस निमित्त का अभ्यास, भावना, बार बार अभ्यास करता है। बार बार पुनरावृत्ति, मनस्कार करते समय, पृथ्वीकसिण आदि (आलम्बन) में रूपावचर चित्त के समान; आकाश (-आलम्बन) में आकाशानन्त्यायतन चित्त उत्पन्न होता है। यहाँ भी प्राथमिक स्तर पर तीन या चार जवन कामावचर एवं उपेक्षा वेदना सम्प्रयुक्त ही होते हैं, चतुर्थ या पञ्चम अरूपावचर होता है। शेष, पृथ्वीकसिण में जैसा बतलाया गया है, वैसा ही है । ७. अन्तर यह है-यों अरूपावचर चित्त उत्पन्न हो जाने पर वह भिक्षु जो कि पहले कसिणमण्डल को ज्ञानचक्षु से देखते हुए विहार करता था, अब " आकाश, आकाश" - इस प्रकार इस प्रारम्भिक मनस्कार द्वारा (कसिणमण्डल के) सहसा दूर कर दिये जाने से उस निमित्त में केवल आकाश को ही देखता हुआ साधना करता है; वैसे ही जैसे कि किसी पर्दों से ढकी पालकी, सामान रखने के थैले या बड़े आकार के गोलाकार पात्र आदि के मुख (द्वार) को नीले, पीले, लाल या श्वेत वस्त्र से बाँधकर उसे देखने वाला पुरुष वायु के वेग से या किसी अन्य उपाय द्वारा वस्त्र हटा लिये जाने पर आकाश को देखता रह जाय । एवं इसी स्थल पर यह कहा गया है - " सर्वथा रूपसंज्ञाओं का समतिक्रमण करने से, प्रतिघसंज्ञाओं के अस्तगत हो जाने से, नानात्वसंज्ञाओं का मनस्कार न करने से 'अनन्त आकाश' - यों आकाशानन्त्यायतन को प्राप्त कर साधना करता है।" (अभि० २/२९५) । ८. यहाँ सब्बसो का यह अर्थ है - सब प्रकार से (सर्वथा ); या सभी का, अशेष १. पथवीकसिणनिद्देसे पठमज्झानकथायं चतुत्थज्झानकथायं च । २. यानप्पुतोळि - कुम्भिमुखादीनं ति। ओगुण्ठनसिविकादियानानं मुखं यानमुखं, पुतोळिया खुद्दकद्वारस्स मुखं पुतोळिमुखं, कुम्भिमुखं ति पच्चेकं मुख- सद्दो सम्बन्धितब्बो । पुतोळिया रथिकाय मुखं पुतोलिमुखं वा ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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