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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो 'अज्झत्तं मे चित्तं ठितं भविस्सति सुसण्ठितं, न चुप्पन्ना पापका अकुसला धम्मा चित्तं परियादाय ठस्सन्ती' ति। एवं हि ते, भिक्खु, सिक्खितब्बं" ति । ६५. इमिना पनस्स ओवादेन नियकज्झत्तवसेन चित्तेकग्गतामत्तो मूलसमाधि वुत्तो । ततो "एत्तकेनेव सन्तुट्ठि अनापज्जित्वा एवं सो एव समाधि वड्ढेतब्बो " ति दस्सेतुं "यतो खो ते भिक्खु अज्झत्तं चित्तं ठितं होति सुसण्ठितं, न चुप्पन्ना पापका अकुसला धम्मा चित्तं परियादाय तिट्ठन्ति, ततो ते भिक्खु एवं सिक्खितब्बं - ' मेत्ता मे चेतोविमुत्ति भाविता भविस्सति बहुलीकता यानीकता वत्थुकता अनुट्ठिता परिचिता सुसमारद्धा, ति । एवं हि ते, भिक्खु, सिक्खितब्बं" ति एवमस्स मेत्तावसेन भावनं वत्वा पुन " यतो खो ते, भिक्खु, अयं समाधि एवं भावितो होति बहुलीकतो, ततो त्वं भिक्खु इमं मूलसमाधिं सवितक्कं पि सविचारं भावेय्यासि....पे०... उपेक्खासहगतं पि भावेय्यासी" ति वुत्तं । तस्सत्थो - यदा ते, भिक्खु, अयं मूलसमाधि एवं मेत्तावसेन भावितो होति, तदा त्वं तावतकेना पि तुद्धिं अनापज्जित्वा व इमं मूलसमाधिं असु पि आरम्मणेसु चतुक्कपञ्चकज्झानानि पापयमानो सवितक्कं पि सविचारं ति आदिना नयेन भावेय्यासीति । १८९ ६६..एवं वत्वा च पुन करुणादिअवसेसब्रह्मविहारपुब्बङ्गमं पिस्स असु आरम्मणेसु `चतुक्कपञ्चकज्झानवसेन भावनं करेय्यासी ति दस्सेन्तो–“यतो खो ते, भिक्खु, अयं समाधि करते हुए कहा - " इसलिये, भिक्षु ! तुम्हें यहाँ यों सीखना चाहिये - 'मेरा अन्तर, चित्त स्थिर सुस्थिर होगा एवं उत्पन्न हो चुके पापमय अकुशल धर्म चित्त को विक्षुब्ध करने के लिये बने नहीं रहेंगे। भिक्षु, तुम्हें यों सीखना चाहिये।" ६५. इस उपदेश द्वारा, उसके अपने अन्तर के अनुसार, चित्त की एकाग्रतामात्र को ही मूल समाधि कहा गया है। I तत्पश्चात् " इतने से ही सन्तुष्ट न होकर, उसी समाधि को यों बढ़ाना चाहिये " - इसे प्रदर्शित करने के लिये "भिक्षु, जब से तुम्हारा अन्तर, चित्त स्थिर सुस्थिर हो जाय तथा उत्पन्न पापमय अकुशल धर्म चित्त को विक्षुब्ध करने के लिये बने न रहें, तबसे, भिक्षु, तुम्हें यों सीखना चाहिये"इस प्रकार उसके लिये मैत्रीरूप भावना का निर्देश कर, पुनः यह कहा गया है- " भिक्षु, जब से यह समाधि यों भावित, अभ्यस्त हो जाय, तबसे, भिक्षु, तुम इस सवितर्कसविचारसमाधि की भावना करो... पूर्ववत्... उपेक्षासहगत की भावना करो।" यह प्रसङ्गनिर्देशपूर्वक उद्धरण (अं० नि० ३/४८५) का वास्तविक अभिप्राय बतलाया गया है। उसका अर्थ है–‘“भिक्षु, जब तुम्हें यह मूल समाधि (= चित्त की एकाग्रता मात्र, आलम्बन चाहे कोई भी हो) यों मैत्री के रूप में भावित ( विकसित अवस्था को प्राप्त) हो जाय, तब तुम केवल उतने से ही सन्तुष्ट न होकर इस मूल समाधि को भी अन्य आलम्बनों में चतुष्क पञ्चक ध्यान तक पहुँचाते हुए, 'सवितर्क - सविचार भी' आदि प्रकार से (बतलाये गये के अनुसार) भावना करो। " ६६. इस कथन के बाद यह दरसाते हुए कि करुणा आदि शेष ब्रह्मविहारों से पूर्व भी यह (भिक्षु) अन्य आलम्बनों में चतुष्क- पञ्चक ध्यान के अनुसार भावना कर सकता है; "भिक्षु !
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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