SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ विसुद्धिमग्गो ६३. यो पनेवं वदेय्य-यस्मा भगवता अट्ठकनिपाते चतूसु पि अप्पमञासु अविसेसेन वुत्तं-"ततो त्वं, भिक्खु, इमं समाधिं सवितकं पि सविचारं भावेय्यासि, अवितक्कं पि विचारमत्तं भावेय्यासि अवितकं पि अविचारं भावेय्यासि, सप्पीतिकं पि भावेय्यासि, निप्पीतिकं पि भावेय्यासि, सातसहगतं पि भावेय्यासि, उपेक्खासहगतं पि भावेय्यासी" (अं० नि० ३/४८५) ति, तस्मा चतस्सो पि अप्पमा चतुक्कपञ्चकज्झानिका ति? सो मा हेवं तिस्स वचनीयो। ___एवं हि सति कायानुपस्सनादयो पि चतुक्कपञ्चकज्ज्ञामिका सियुं। वेदनादीसु च पठमज्झानं पि नत्थि, पगेव दुतियादीनि। तस्मा ब्यञ्जनच्छायामत्तं गहेत्वा मा भगवन्तं अब्भाचिक्खि, गम्भीरं हि बुद्धवचनं। तं आचरिये पयिरुपासित्वा अधिप्पायतो गहेतब्बं। ६४. अयं हि तत्र अधिप्पायो-“साधु, मे, भन्ते, भगवा सङ्कित्तेन धम्मं देसेतु, यमहं भगवतो धम्म सुत्वा एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरेय्यं" ति एवं आयाचितधम्मदेसनं किर तं भिक्खं यस्मा सो पुब्बे पि धम्म सुत्वा तत्थेव वसति, न समणधम्म कातुं गच्छति, तस्मा नं भगवा-"एवमेव पनिधेकच्चे मोघपुरिसा मम व अज्झेसन्ति, धम्मे च भासिते ममब्रुव अनुबन्धितब्बं मजन्ती" ति अपसादेत्वा पुन यस्मा सो अरहत्तस्स उपनिस्सयसम्पन्नो, तस्मा नं ओवदन्तो आह-"तस्मातिह ते, भिक्खु, एवं सिक्खितब्बं किन्तु अन्तिम (उपेक्षा भावना) शेष एक (अन्तिम) ध्यान वाली ही होती है। क्यों? उपेक्षावेदना से सम्प्रयुक्त होने के कारण। क्योंकि सत्त्वों के प्रति मध्यस्थता के रूप में प्रवृत्त उपेक्षाब्रह्मविहार उपेक्षावेदना के विना सम्भव नहीं है। ६३. किन्तु जो यह कहे कि क्योंकि भगवान ने (अं०नि० के) अष्टकनिपात में चारों अप्रमाणों में कोई अन्तर किये विना कहा है-"भिक्षु, उसके बाद तुम इस सवितर्कसविचार समाधि की भावना करना, और अवितर्कविचारमात्र की भावना करना, प्रीतिसहित की भी भावना करना, सुखसहित की भी भावना करना, उपेक्षासहगत की भी भावना करना" (अं० ३/४८५)-इसलिये चारों ही अप्रमाण चतुष्क एवं पञ्चक ध्यान वाली हैं? तो उससे कहना चाहिये कि ऐसा नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा हो, तो कायानुपश्यना आदि भी चतुष्क पञ्चक ध्यान वाले होंगे। एवं वेदना आदि में तो प्रथम ध्यान भी नहीं होता, फिर द्वितीय आदि कहाँ से होंगे! इसलिये शब्दार्थमात्र का ग्रहण कर भगवान् के वचनों का मिथ्या अर्थ न लगाइये, क्योंकि बुद्धवचन गम्भीर है। आचार्य की सेवा कर (उनके श्रीमुख से) उस (बुद्धवचन) का अभिप्रायत: ग्रहण करना चाहिये। ६४. वहाँ यह अभिप्राय है-"भन्ते! अच्छा हो यदि भगवान् मुझे धर्म का उपदेश संक्षेप में दें, जिससे मैं भगवान् से धर्मश्रवण कर एकाकी, सबसे पृथक्, अप्रमत्त, उद्योगी एवं संयमी होकर विहार करूँ"-इस प्रकार धर्मोपदेश की याचना करने वाले किसी भिक्ष को, क्योंकि वह इससे पहले भी धर्मश्रवण करने पर भी वहीं रहा, श्रमणधर्म पालन के लिये गया नहीं, इसलिये भगवान् ने उसे यों फटकारा-"ऐसे ही यहाँ कोई कोई अकर्मण्य पुरुष मुझसे ही प्रश्न पूछा करते हैं और उपदेश करने पर मेरे ही पीछे लगे रहना ठीक मानते हैं।" इसके बाद, क्योंकि वह भिक्षु अर्हत् के उपनिश्रय (आवश्यक योग्यता, प्रत्यय) से सम्पन था, अत: उसे पुन: इस प्रकार प्रबोधित
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy