SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मविहारनिसो १६३ उपगतस्स नेव तं पटिघं वूपसम्मति, अथानेन अनमतग्गियानि पच्चवेक्खितब्बानि । तत्र हि वुत्तं - " न सो, भिक्खवे, सत्तो सुलभरूपो, यो न माता भूतपुब्बो, यो न पिता भूतपुब्बो, यो न भाता, यो न भगिनी, यो न पुत्तो, यो न धीता भूतपुब्बो" (सं० नि० २ / ६२० - ६२१) ति । तस्मा तस्मि पुग्गले एवं चित्तं उप्पादेतब्बं - " अयं किर मे अतीते माता हुत्वा दसमासे कुच्छिया परिहरित्वा मुत्तकरीसखेळसिङ्घाणिकादीनि हरिचन्दनं विय अजिगुच्छमानो अपनेत्वा उरे नच्चापेन्तो अङ्गेन परिहरमानो पोसेसि, पिता हुत्वा अजपथसङ्कपथादीनि गन्त्वा वाणिज्जं पयोजयमानो मय्हं अत्थाय जीवितं पि परिच्चजित्वा उभतोब्यूळ्हे सङ्ग्रामे पविसित्वा नावाय महासमुद्दं पक्खन्दित्वा अञ्ञानि च दुक्करानि करित्वा “पुत्तके पोसेस्सामी" ति तेहि तेहि उपायेहि धनं संहरित्वा मं पोसेसि। भाता, भगिनी, पुत्तो, धीता च हुत्वा पि इदं चिदं च उपकारं अकासी ति तत्र मे नप्पटिरूपं मनं पदूसेतुं" ति । २९. संचे पन एवं पि चित्तं निब्बापेतुं न सक्कोति येव, अथानेन एवं मेत्तानिसंसा पच्चवेक्खितब्बा- “ अम्भो पब्बजित, ननु वुत्तं भगवता - 'मेत्ताय खो, भिक्खवे, चेतोविमुत्तिया आसेविताय भाविताय बहुलीकताय यानीकताय वत्थुकताय अनुट्ठिताय परिचिताय सुसमारद्धाय एकादसानिसंसा पाटिका । कतमे एकादस ? सुखं सुपति, सुखं पटिबुज्झति, न पापकं सुपिनं पस्सति, मनुस्सानं पियो होति, सेक्लेशों का दास बने हुए उसका प्रतिघ शान्त न हो तो उसे उन सूत्रों का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये जिनमें (संसार चक्र के) अनादित्व का प्रतिपादन किया गया है। क्योंकि वहाँ कहा गया है—“भिक्षुओ, ऐसा कोई भी सत्त्व सुलभ नहीं है जो कि पूर्वकाल में (किसी न किसी जन्म में) माता न रहा हो, पूर्वकाल में जो पिता न रहा हो, पूर्वकाल में जो भाई, बहन, पुत्र, पुत्री न रहा हो" (सं० नि० २/ ६२०-६२१)। अतः उस व्यक्ति के बारे में यों विचार करना चाहिये - "इसने अतीत काल में मेरी माता के रूप में दस महीने कुक्षि में वहन किया, मूत्र, मल, थूक, नाक का मल आदि को हरिचन्दन के समान, घृणा न करते हुए साफ किया, वक्षःस्थल पर क्रीड़ा कराते हुए, गोद में ढोते हुए पालन किया । पिता के रूप में अजपथ (ऐसा संकीर्ण मार्ग जिस पर केवल बकरी जैसे पशु ही चल सकते हैं), शङ्कुपथ (लोहे के काँटे फँसाकर, उस पर रस्सी बाँधकर पार किया जाने वाला मार्ग) आदि से व्यापार के निमित्त जाते हुए अपने जीवन की भी चिन्ता नहीं की; ऐसे युद्ध में, जिसमें दोनों ओर की सेनाएँ व्यूह बनाकर खड़ी थीं प्रवेश किया, नाव लेकर महासागर में कूद पड़े। अन्य भी दुष्कर कार्य करते हुए 'बच्चे का पालन करना' है ऐसा सोचकर इन इन उपायों से धन कमाकर मेरा पालन किया । एवं भाई, बहन, पुत्र, पुत्री के रूप में यह यह उपकार किया । अतः उसके विषय में मन को द्वेषयुक्त करना मेरे लिये उचित नहीं है।" २९. यदि इस प्रकार भी चित्तं को शान्त करने में समर्थ न हो, तो उसे मैत्री के गुणों कायों प्रत्यवेक्षण करना चाहिये " हे प्रव्रजित, क्या भगवान् ने यह नहीं कहा है- 'भिक्षुओ ! सेवित, भावित, वर्धित हुई, वाहन या आधार बनायी गयी, अनुष्ठान की गयी, परिचित एवं भलीभाँति ग्रहण की गयी मैत्रीतोविमुक्ति से ग्यारह लाभ सम्भव हैं। कौन से ग्यारह ? (इसका सेवन... ग्रहण करने वाला) सुख
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy