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________________ विसुद्धिमग्गो २६. सङ्घपालनागराजा हुत्वा तिखिणाहि सत्तीहि अट्ठसु ठानेसु ओविज्झित्वा पहारमुखेहि सकण्टका लतायो पवेसेत्वा नासाय दळ्हं रज्जुं पंक्खिपित्वा सोळसहि भोजपुत्तेहि काजेनादाय वय्हमानो धरणीतले घंसियमानसरीरो महन्तं दुक्खं पच्चनुभोन्तो कुज्झित्वा ओलोकितमत्तेनेव सब्बे भोजपुत्ते भस्मं कातुं समत्यो पि समानो चक्खुं उम्मीलेत्वा पट्ठाकारमत्तं पि न अकासि । यथाह १६२ " चातुद्दसिं पञ्चदसिं चळार', उपोसथं निच्चमुपावसामि । अथागमं सोळसभोजपुत्ता, रज्जुं गहेत्वान दहच पासं ॥ भेत्वान नासं अतिकस्स रज्जुं नयिंसु मं सम्परिगव्ह लुद्दा । एतादिसं दुक्खमहं तितिक्खं उपोसथं अप्पटिकोपयन्तो " ति ॥ (खु०३:२/२४) २७. न केवलं च एतानेव, अञ्ञानि पि मातुपोसकजातकादीसु अनेकानि अच्छरियानि अकासि । तस्स ते इदानि सब्बञ्जतं पत्तं सदेवके लोके केनचि अप्पटिसनमखन्तिगुणं तं भगवन्तं सत्थारं अपदिसतो पटिघचित्तं नाम उप्पादेतुं अतिविय अयुक्तं अप्पटिरूपं ति । २८. सचे पनस्स एवं सत्थु पुब्बचरितगुणं पच्चवेक्खतो पि दीघरत्तं किलेसानं दासब्यं कोप करता तो उसे क्षण भर में जलाकर राख कर देता। (किन्तु मैंने सोचा कि ) यदि चित्त के वश में होता हूँ तो मेरा शील जाता रहेगा, एवं शीलविहीन को उत्तम अर्थ में सिद्धि नहीं मिलती ॥" (खु० ७-४०२ ) २६. जब सङ्घपाल नामक नागराज थे, तब उन को सोलह ग्रामीण बालक आठ स्थानों पर तीक्ष्ण बर्छियों में बेधकर घावों में कँटीली लताएँ घुसाकर, नाक को मजबूत रस्सी से नाथकर, बँहगी पर रखकर ले जाने लगे। धरती पर शरीर के घसीटे जाने से बहुत दुःख का अनुभव किया। कुपित होकर दृष्टिपात करने मात्र से सभी ग्रामीण बालकों को भस्म कर देने में समर्थ होने पर भी, स्वाभाविक रूप से आँखें खुली रखकर रञ्चमात्र भी द्वेष नहीं किया। जैसा कि कहा है" हे अळार ! मैं चतुर्दशी, पूर्णिमा को सदैव उपोसथ का पालन करता था। उसी समय सोलह ग्रामीण बालकों ने आकर मुझे रस्सी से कसकर बाँध दिया। इन व्याधों ने मेरी नासिका छेद दी, उसमें रस्सी डालकर मुझे ले गये। उपोसथ को कुपित (खण्डित) न करते हुए, मैंने इस प्रकार का दुःख (भी) सह लिया ।" (खु० ३ : २ / २४ ) २७. केवल ये ही नहीं, मातृपोसक जातक आदि में वर्णित अन्य भी अनेक आश्चर्यजनक कार्य किये थे। तो अब सर्वज्ञताप्राप्त, देवों सहित सभी लोकों में क्षान्ति में अतुलनीय उन भगवान् को शास्ता मानने वाले उस तुम्हारे लिये प्रतिघ चित्त उत्पन्न करना अत्यधिक अयुक्त, अनुचित है। २८. किन्तु यदि शास्ता द्वारा पूर्व- आचरित गुणों का यों प्रत्यवेक्षण करने पर भी, दीर्घकाल १. चळारा ति । च अकार इति परिच्छेदो। अळारो नाम कोचि कुटुम्बिको यो तं सङ्खपालनागराजानं भोजपुत्तानं हत्थतो मोचेसि । २. इस नाम का एक गृहस्थ, जिसने सङ्घपाल नामक नागराज को उन बालकों से मुक्त कराया था।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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