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________________ १४० विसुद्धिमग्गो खयविरागो ति सङ्घारानं खणभङ्गो। अच्चन्तविरागो ति निब्बानं। विरागानुपस्सना ति तदुभयदस्सनवसेन पवत्ता विपस्सना च मग्गो च। ताय दुविधाय पि अनुपस्सनाय समन्नागतो हुत्वा अस्ससन्तो पस्ससन्तो च "विरागानुपस्सी अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खती" ति वेदितब्बो। निरोधानुपस्सी-पदे पि एसेव नयो।। पटिनिस्सग्गानुपस्सी ति। एत्था पि द्वे पटिनिस्सग्गा-परिच्चागपटिनिस्सग्गो' च पक्खन्दनपटिनिस्सग्गो च। पटिनिस्सग्गो येव अनुपस्सना पटिनिस्सग्गानुप्पसना। विपस्सनामग्गानं एतमधिवचनं। विपस्सना हि तदङ्गवसेन सद्धिं खन्धाभिसनारेहि किलेसे परिच्चजति, सङ्गतदोसदस्सनेन च तब्बिपरीते निब्बाने तन्निन्नताय पक्खन्दती ति परिच्चागपटिनिसग्गो चेव पक्खन्दनपटिनिस्सग्गो ति च वुच्चति । मग्गो समुच्छेदवसेन सद्धिं खन्धाभिसङ्खारेहि किलेसे परिच्चजति, आरम्मणकरणेन च निब्बाने पक्खन्दती ति परिच्चागपटिनिस्सग्गो चेव पक्खन्दन विरागानुपस्सी-इस प्रसङ्ग में विराग दो हैं-क्षयविराग और अत्यन्त विराग। इनमें, क्षयविराग-संस्कारों का क्षणभङ्ग। अत्यन्तविराग-निर्वाण। विरागानुपश्यना-उन दोनों के दर्शन के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले-विपश्यना और मार्ग। इस द्विविध अनुपश्यना से युक्त होकर साँस लेने और छोड़ने वाले के लिये "विरागानुपस्सी अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति", (कहा गया) जानना चाहिये। निरोधानुपस्सी-(इस) पद में भी यही विधि है। पटिनिस्सग्गानुपस्सी-यहाँ भी दो प्रतिनि:सर्ग हैं-परित्यागप्रतिनि:सर्ग और प्रस्कन्दनप्रतिनि:सर्ग। प्रतिनिःसर्ग ही अनुपश्यना-प्रतिनिःसर्गानुपश्यना। विपश्यना और मार्ग का यह अधिवचन है। __ कारण यह है कि विपश्यना को ही परित्याग के रूप में प्रतिनि:सर्ग और प्रस्कन्दन के रूप में प्रतिनि:सर्ग कहा जाता है; क्योंकि (प्रथमतः) वह विपरीत गुणों को ले आने के कारण क्लेशों का, उनके स्कन्धोत्पादक संस्कारों के साथ, परित्याग कर देती है, एवं (द्वितीयतः) संस्कृत १. पटिनिस्सजनं पहातब्बस्स तदङ्गवसेन वा समुच्छेदवसेन वा परिच्चजनं परिच्चागपटिनिस्सग्गो। २. तथा सब्बूपधीनं पटिनिस्सग्गभूते विसङ्खारे अत्तनो निस्सजनं, तन्निन्त्रताय वा तदारम्मणताय वा तत्थ __पक्खन्दनं पक्खन्दनपटिनिस्सग्गो। ३. क्षय अर्थात् संस्कारों का विनाश, उनसे विरजन (विरक्त होना), उनका नष्ट होना विराग है। क्षय ही विराग है, अत: 'क्षयविराग' कहा गया है। अर्थात् क्षणिक निरोध। ४. इसमें संस्कारों का आत्यन्तिक रूप से विनाश होता है, अतएव अत्यन्तविराग है। अर्थात् निर्वाण। ५. परित्याग प्रतिनिःसर्ग का तात्पर्य है प्रतिनि:सर्जन या प्रहातव्य का उसके अङ्गों या समुच्छेद के अनुसार परित्यजन। ६. प्रस्कन्दन (पक्खन्दन) का शाब्दिक अर्थ है-नीचे ऊपर या इधर उधर कूदना, बहना, फूटकर बहना आदि। प्रस्कन्दनप्रतिनिःसर्ग का तात्पर्य है समस्त उपाधियों के परित्यागभूत विसंस्कार में अपना निःसर्जन या उसे आलम्बन बनाने से उसमें प्रस्कन्दन।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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