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________________ अनुरसतिकम्मट्ठाननिद्देसो नाक्खणे अनिच्चानुपस्सनाय निच्चसञ्ञातो चित्तं मोचेन्तो विमोचेन्तो, दुक्खानुपस्सनाय सुखसञ्जातो, अनत्तानुपस्सनाय अत्तसञ्जातो, निब्बिदानुपस्सनाय नन्दितो, विरागानुपस्सनाय रागतो, निराधानुस्सनाय समुदयतो, पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय आदानतो चित्तं मोचेन्तो विमोचेन्तो अस्ससति चेव पस्ससति च । तेन वुच्चति - " विमोचयं चित्तं अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खती” ति। एवं चित्तानुपस्सनावसेन इदं चतुक्कं भासितं ति वेदितब्बं । (३) ७१. चतुत्थचतुक्के पन अनिच्चानुपस्सी ति एत्थ ताव अनिच्वं वेदितब्बं, अनिच्चता वेदितब्बा, अनिच्चानुपस्सना वेदितब्बा, अनिच्चानुपस्सी वेदितब्बो । तत्थ अनिच्चं ति पञ्चक्खन्धा । कस्मा ? उप्पादवयञ्ञथत्तभावा । अनिच्चता ति । तेसं येव उप्पादवयञ्जथत्तं, हुत्वा अभावो वा। निब्बत्तानं तेनेवाकारेन अठत्वा खणभङ्गेन' भेदो ति अत्थो । अनिच्चानुपस्सना ति । तस्सा अनिच्चताय वसेन रूपादीसु अनिच्चं ति अनुपस्सना । अनिच्चानुपस्सी ति । ताय अनुपस्सनाय समन्नागतो । तस्मा एवम्भूतो अस्ससन्तो च पस्ससन्तो च इध " अनिच्चानुपस्सी अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खती" ति वेदितब्बो । विरागानुपस्सी ति। एत्थ पन द्वे विरागा - खयविरागो' च अच्चन्तविरोगोरॆ च। तत्थ १३९ करते हुए। अथवा, उन ध्यानों को प्राप्त कर, उठने के बाद ध्यानसम्प्रयुक्त चित्त को क्षय होने वाला, व्यय होने वाला जानता है। वह विपश्यना के क्षण में अनित्य की अनुपश्यना द्वारा नित्य संज्ञा से चित्त को विमुक्त करते हुए, दुःख की अनुपश्यना द्वारा सुख संज्ञा से, अनात्म की अनुपश्यना द्वारा आत्मसंज्ञा से, निर्वेद की अनुपश्यना द्वारा नन्दी (विषय- सुख) से, विराग की अनुपश्यना द्वारा राग से, निरोध की अनुपश्यना द्वारा समुदय से, प्रतिनिःसर्ग (परित्याग) की अनुपश्यना द्वारा ग्रहण (आदान) से चित्त को विमुक्त करते हुए साँस लेता और छोड़ता है। अतएव कहा जाता. है- " विमोचयं चित्तं अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति" । यों इस चतुष्क को चित्त की अनुपश्यना से सम्बन्धित समझना चाहिये । (३) चतुर्थ चतुष्क ७१. चतुर्थ चतुष्क में अनिच्चानुपस्सी को इस प्रसङ्ग में अनित्य, अनित्यता, अनित्यानुपश्यना, अनित्यानुपश्यना करने वाला जानना चाहिये। उनमें अनिच्च – पञ्च स्कन्ध हैं। क्यों ? क्योंकि उनका स्वभाव उत्पन्न होना, क्षय होना और परिवर्तित होना है । अनिच्चता - उन्हीं का उत्पाद, व्यय एवं परिवर्तित होना । अथवा होने के बाद न होना । अर्थात् उत्पन्न हुओं का उसी रूप में न रहकर क्षणभङ्ग (क्षणिक निरोध) द्वारा भेद (नाश) हो जाना। अनिच्चानुपस्सनाउस अनित्यता के कारण से रूप आदि अनित्य हैं - यह अनुपश्यना । अनिच्चानुपस्सी - उस अनुपश्यना से युक्त। अतः यों साँस लेते और छोड़ने वाले के लिये ही यहाँ " अनिच्चानुपस्सी अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति' - ( ऐसा कहा गया) जानना चाहिये । १. खणभङ्गेनाति । खणिकनिरोधेन । २. खयो सङ्घारानं विनासो, विरज्जनं तेसं येव विलुज्जनं विरागो । खयो एव विरागो खयविरागो । खणिकनिरोधो । ३. अच्चन्तमेत्थ एतस्मि अधिगते सङ्घारा विरज्झन्ति निरुज्झन्ती ति अच्चन्तविरागो, निब्वानं ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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