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________________ १३६ विसुद्धिमग्गो पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। तत्थ द्वीहाकारेहि पीति पटिसंविदिता होति-आरम्मणतो च, असम्मोहतो च। कथं आरम्मणतो पीति पटिसंविदिता होति? सप्पीतिके द्वे झाने समापज्जति। तस्स समापत्तिक्खणे झानपटिलाभेन आरम्मणतो पीति पटिसंविदिता होति, आरम्मणस्स पटिसंविदितत्ता। कथं असम्मोहतो? सप्पीतिके द्वे झाने समापज्जित्वा वुट्ठाय झानसम्पयुत्तं पीतिं खयतो वयतो सम्मसति तस्स विपस्सनाक्खणे लक्खणपटिवेधेन असम्मोहतो पीति पटिसंविदिता होति। वुत्तं हेतं पटिसम्भिदायं "दीघं अस्सासवसेन चित्तस्स एकग्गतं अविक्खेपं पजानतो सति उपट्ठिता होति। ताय सतिया तेन जाणेन सा पीति पटिसंविदिता होति। दीघं अस्सासवसेन दीघं पस्सासवसेन। रस्सं अस्सासवसेन। रस्सं पस्सासवसेन। सब्बकायपटिसंवेदी अस्सासपस्सासवसेन... पस्सम्भयं कायसङ्घारं अस्सासपस्सासवसेन चित्तस्स एकग्गतं अविक्खेपं पजानतो सति उपट्ठिता होति। ताय सतिया तेन आणेन सा पीति पटिसंविदिता होति।आवजतो सा पीति पटिसंविदिता होति। पीतिपटिसंवेदी-प्रीति का प्रतिसंवेदन (स्पष्ट अनुभव) करते हुए अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। प्रीति का प्रतिसंवेदन दो प्रकार से होता है-१.आलम्बन से, २. असम्मोह से। १. कैसे आलम्बन से प्रीति का प्रतिसंवेदन होता है? (वह भिक्षु) प्रीतियुक्त दो ध्यानों (प्रथम और द्वितीय) को प्राप्त करता है। उसकी प्राप्ति के क्षण में, आलम्बन के प्रतिसंवेदित होने के कारण, ध्यान के लाभ से आलम्बन द्वारा प्रीति का (भी) प्रतिसंवेदन होता है। २. असंमोह से कैसे? प्रीतियुक्त दो ध्यानों को प्राप्त कर, उनसे उठने के बाद वह अनुभव करता है कि ध्यान से सम्प्रयुक्त प्रीति क्षय होने वाली, व्यय होने वाली है। तब विपश्यना के क्षण में (अनित्य आदि) लक्षणों के प्रतिवेध (=अन्त:प्रवेश, गहरी समझ) द्वारा असम्मोह के बल से प्रीति का प्रतिसंवेदन होता है। क्योंकि पटिसम्भिदा में कहा गया है-'दीर्घ आश्वास से होने वाली चित्त की एकाग्रता, अविक्षेप को जानने वाले की स्मृति उपस्थित रहती है। दीर्घ प्रश्वास से...हस्व आश्वास से...हस्व प्रश्वास से..समस्त काय का प्रतिसंवेदन करने वाले आश्वास-प्रश्वास से...कायसंस्कारों को शान्त करने वाले आश्वास-प्रश्वास से होने वाली चित्त की एकाग्रता, अविक्षेप को जानने वाले की स्मृति उपस्थित रहती है। उस स्मृति और उस ज्ञान से, उस प्रीति का प्रतिसंवेदन होता है। आवर्जन (अभ्यास) करते हुए उस प्रीति का प्रतिसंवेदन होता है। जानते हुए, देखते हुए, प्रत्यवेक्षण करते हुए चित्त को अधिष्ठित (स्थिर) करते हुए, श्रद्धा से दृढ़ निश्चय (अधिमुक्ति) करते हुए, वीर्य से प्रग्रह करते हुए, स्मृति को उपस्थित करते हुए, चित्त को एकाग्र करते हुए, प्रज्ञा द्वारा भलीभाँति जानते हुए, १. भिक्षु आणमोलि ने अपने 'पाथ ऑफ प्युरिफिकेशन' (पृ०-३१०) में इस प्रसङ्ग में एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है कि जैसे कोई सँपेरा जब साँप के निवासस्थान को खोज लेता है, तब मानों वह साँप को ही खोज लेता है; क्योंकि मन्त्रबल से उसे पकड़ लेना निश्चित ही है; वैसे ही जब वह आलम्बन को, जिसमें प्रीति रहती है, खोज लेता है तब मानों स्वयं प्रीति ही खोज ली जाती है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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