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________________ अनुस्पतिकम्मट्ठाननिद्देसो १३५ एवं नामरूपं ववत्थपेत्वा तस्स पच्चयं परियेसति । परियेसन्तो च नं दिस्वा तीसुपि अद्धासु नामरूपस्स पवत्तिं आरब्भ कङ्खं वितरति । वितिण्णको कलापसम्मसनवसेन तिलक्खणं आरोपेत्वा उदयब्बयानुपस्सनायं पुब्बभागे उप्पन्ने ओभासादयो दस विपस्सनुपक्किलेसे पहाय उपक्किलेसविमुत्तं पटिपदाञाणं मग्गो ति ववत्थपेत्वा उदयं पहाय भङ्गानुपस्सनं पत्वा निरन्तरं भङ्गानुपस्सनेन वयतो उपट्ठितेसु सब्बसङ्घारेसु निब्बिन्दन्तो विरज्जन्तो विमुच्चन्तो यथाक्कमेन चत्तारो अरियमग्गे पापुणित्वा अरहंत्तफले पतिट्ठाय एकूनवीसतिभेदस्स पच्चवेक्खणाञाणस्स परियन्तं पत्तो सदेवकस्स लोकस्स अग्गदक्खिणेय्यो होति । (८) एत्तावता चस्स गणनं आदिं कत्वा पटिपस्सनापरियोसाना आनापानस्सतिसमाधिभावना समत्ता होती ति । अयं सब्बाकारतो पठमचतुक्कवण्णना ॥ ६९. इतरेसु पन तीसु चतुक्केसु यस्मा विसुं कम्मट्ठानभावनानयो नाम नत्थि । तस्मा अनुपदवण्णनानयनेवं तेसं एवं अत्थो वेदितब्बो पीतिपटिसंवेदी ति । पीतिं पटिसंविदितं करोन्तो पाकटं करोन्तो अस्ससिस्सामि यों नाम-रूप का निश्चय कर, उसके प्रत्यय को खोजता है । खोजने पर उसे देखकर तीनों कालों में नाम-रूप की प्रवृत्ति के बारे में शंकाओं का निराकरण करता है। शंकारहित होकर कलाप के रूप में विचार करते हुए तीन लक्षणों (अनित्य, दुःख, अनात्म) का ( विचार के विषय रूप में) ग्रहण करते हुए, उत्पत्ति-लय की अनुपश्यना के पूर्वभाग में उत्पन्न अवभास आदि विपश्यना के दस उपक्लेशों को त्याग कर इस निश्चय पर पहुँचता है कि उपक्लेशों से विमुक्त प्रतिपदा - ज्ञान ही मार्ग है। तब 'उदय' को छोड़कर भङ्गानुपश्यना को प्राप्त कर, निरन्तर भङ्गानुपश्यना द्वारा व्यय (क्षय) के रूप में उपस्थित होने वाले सभी संस्कारों से निवृत्त होते हुए, विरक्त होते हुए, विमुक्त होते हुए क्रमशः चार आर्य मार्गों को प्राप्त कर, अर्हत् फल में प्रतिष्ठित होकर, उन्नीस प्रकार के प्रत्यवेक्षण ज्ञान ( द्र० इसी ग्रन्थ का बाईसवाँ परिच्छेद) की चरम सीमा को प्राप्त कर, देवलोक सहित सभी लोकों के लिये अग्रदक्षिणेय ( प्रथम सम्मानयोग्य) होता है। ८. यहाँ तक, गणना से लेकर प्रतिपश्यना तक इस (भिक्षु) की आनापान - स्मृति-भावना का समापन होता है। यह प्रथम चतुष्क की सभी पक्षों से व्याख्या है ॥ द्वितीय चतुष्क ६९. अन्य तीन चतुष्कों में क्योंकि पृथक् रूप से कर्मस्थान की भावनाविधि नहीं है, अतः (पालि के) पदों के अनुसार व्याख्या की विधि से ही, उनका अर्थ ऐसे समझना चाहिये १. ओभासो, जाणं, पीति, पस्सद्धि, सुखं, अधिमोक्खो, पग्गहो, उपेक्खा, उपट्ठानं, निकन्ती ति इमे दस ओभासादयो । २. रूप धर्मों का अन्तिम अवयव कलाप है । विस्तार के लिये द्र० अभि० संगहो, षष्ठ परिच्छेद । ३. अवभास आदि - अवभास, ज्ञान, प्रीति, प्रश्रब्धि, सुख, अधिमोक्ष, प्रग्रह, उपेक्षा, उपस्थान एवं निकान्ति (लालसा) । 2-11
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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