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________________ अन्तरङ्गकथा है। इस भावना से क्रमपूर्वक अर्पणा होती है । प्रतिभागनिमित्त की उत्पत्ति के समय से विघ्न और क्लेश दूर हो जाते हैं, स्मृति उपस्थित होती है और चित्त उपचार समाधि द्वारा समाहित होता है। साधक को उक्त प्रतिभागनिमित्त के वर्ण और लक्षण का ग्रहण न करना चाहिये । निमित्त की अच्छी तरह रक्षा करनी चाहिये। इसलिये अनुपयुक्त आवास आदि का परित्याग करना चाहिये। इस प्रकार निमित्त की रक्षा कर निरन्तर भावना द्वारा कर्मस्थान की वृद्धि करनी चाहिये। अर्पणा में कुशलता प्राप्त कर, वीर्य का सम भाव प्रतिपादित करना चाहिये । तदनन्तर ध्यानों का उत्पाद करना चाहिये । १७ इस प्रकार ध्यानों का उत्पाद कर जो योगी संलक्षणा ( = विपश्यना, इसे अभिधर्मकोश में 'उपलक्षण' कहा है) और निवर्त्तना (= मार्ग) द्वारा कर्मस्थान की वृद्धि करना चाहता है और परिशुद्धि (=मार्गफल) प्राप्त करना चाहता है, उसे पाँच प्रकार से (आवर्जन, समङ्गी होना, अधिष्ठान, व्युत्थान और प्रत्यवेक्षण) ध्यानों का अभ्यास करना चाहिये। और नाम-रूप की व्यवस्था कर विपश्यना का आरम्भ करना चाहिये । साधक सोचता है कि शरीर और चित्त के कारण आश्वास प्रश्वास होते हैं; चित्त इनका समुत्थापक है और शरीर के विना इनका प्रवर्तन सम्भव नहीं है। वह स्थिर करता है कि आश्वास प्रश्वास और शरीर रूप हैं और चित्त तथा चैतसिक धर्म अरूप ( = नाम) हैं। इस प्रकार नाम-रूप की व्यवस्था कर वह इनके हेतु का पर्येषण करता है, वह अनित्यादि लक्षणों का विचार करता है, निमित्त का निवर्तन कर आर्य मार्ग में प्रवेश करता है, तथा सकल क्लेश का ध्वंस कर अर्हत्फल में प्रतिष्ठित हो विवर्त्तना और परिशुद्धिं की प्रत्यवेक्षाज्ञान की कोटि को प्राप्त होता है । इस प्रत्यवेक्षा को पालि में 'परिपस्सना' कहा है। आनापानस्मृति समाधि की प्रथम चार प्रकार की भावना का विवेचन पूर्णरूप से किया जा चुका है। अब हम शेष बारह प्रकार की भावना का विचार करेंगे यह बारह प्रकार भी तीन वर्गों में विभक्त किये जाते हैं। एक-एक वर्ग में चार प्रकार सम्मिलित हैं। इनमें से पहला वर्ग वेदनानुपश्यनावश चार प्रकार का है। ५. इस वर्ग के पहले प्रकार में साधक प्रीति का अनुभव करते हुए श्वास का परित्याग और ग्रहण करना सीखता है । दो तरह से प्रीति का अनुभव किया जाता है - शमथमार्ग (= लौकिक समाधि) में आलम्बन वश और विपश्यनामार्ग में असम्मोहवश । प्रीतिसहगत प्रथम और द्वितीय ध्यान सम्पादित कर ध्यान क्षण में साधक प्रीति का अनुभव करता है। प्रीति के आश्रयभूत आलम्बन का संवेदन होने प्रीति का अनुभव होता है। इसलिये यह संवेदन आलम्बन वश होता है। साधक प्रीतिसहगत प्रथम और द्वितीय ध्यानों को सम्पादित कर ध्यान से व्युत्थान करता है और ध्यानसम्प्रयुक्त प्रीति के क्षयकर्म का ग्रहण करता है । विपश्यना प्रज्ञा द्वारा प्रीति के विशेष और सामान्य लक्षणों के यथावत् ज्ञान से दर्शनक्षण में प्रीति का अनुभव होता है। यह संवेदन असम्मोहवश होता है । पटिसम्भिदामग्ग में कहा है- जब साधक दीर्घ श्वास लेता है और स्मृति को ध्यान के सम्मुख उपस्थापित करता है तब इस स्मृति के कारण तथा इस ज्ञान के कारण कि चित्त एकाग्र है, साधक प्रीति का अनुभव करता है। इसी प्रकार जब साधक दीर्घ श्वास छोड़ता है, ह्रस्व श्वास लेता है, ह्रस्व श्वास छोड़ता है, सकल श्वासका सकल प्रश्वासकाय के आदि मध्य और अवसान सब भागों का अवबोध कर तथा उन्हें विशद और विभूत कर श्वास छोड़ता और श्वास लेता है, कायसंस्कार (श्वास-प्रश्वास) का उपशम करते हुए श्वास छोड़ता है और श्वास लेता है; तब उसका चित्त एकाग्र होता है और इस ज्ञान द्वारा वह प्रीति का अनुभव करता है । यह प्रीति-संवेदन आलम्बनवश होता है। जो ध्यान की ओर चित्त का
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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