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विसुद्धिमग्गो
जिस प्रकार नगर का द्वारपाल नगर के भीतर और बाहर जाते लोगों की पूछताछ नहीं करता, अपि तु जो मनुष्य नगर के द्वार पर आता है उसकी जाँच करता है; उसी प्रकार साधक का चित्त अन्त:प्रविष्ट वायु और बहिर्निष्क्रान्त वायु की उपेक्षा कर केवल द्वारप्राप्त आश्वास प्रश्वास का अनुगमन करता है। स्थानविशेष पर स्मृति को उपस्थापित करने से क्रिया सुलभ हो जाती है, कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
पटिसम्भिदामग्ग में आरे की उपमा दी गयी है। जिस प्रकार आरे से काटते समय वृक्ष को समतल भूमि पर रखकर क्रिया की जाती है और आते जाते आरे के दाँतों की ओर ध्यान न देकर जहाँ जहाँ आरे के दाँत वृक्ष का स्पर्श करते हैं, वहाँ वहाँ ही स्मृति उपस्थापित करें आते जाते आरे के दाँत जाने जाते हैं और प्रयत्नवश छेदन की क्रिया निष्पन्न होती है और यदि कोई विशेष प्रयोजन हो तो वह भी सम्पादित होता है; उसी प्रकार साधक नासिकाग्र या उत्तरोष्ठ में स्मृति को उपस्थापित कर सुखासीन होता है। आते जाते आश्वास प्रश्वास की ओर ध्यान नहीं देता। किन्तु यह बात नहीं है कि वे उसको अविदित हों, भावना को निष्पन्न करने के लिये वह प्रयत्नशील होता है, विघ्नों (नीवरणों) का नाश कर भावनानुयोग साधित करता है और उत्तरोत्तर लौकिक एवं लोकोत्तर समाधि का प्रतिलाभ करता है।
काय और चित्त वीर्यारम्भ से भावना-कर्म में समर्थ होते हैं; विघ्नों का नाश और वितर्क का उपशम होता है; दस संयोजनों का परित्याग होता है, इसलिये अनुशयों का लेशमात्र भी नहीं रह जाता।
इस कर्मस्थान की भावना करने से अल्पसमय में ही प्रतिभागनिमित्त का उत्पाद होता है और ध्यान के अन्य अङ्गों के साथ अर्पणा समाधि का लाभ होता है। जब गणनाक्रियावश स्थूल आश्वास प्रश्वास का क्रमशः निरोध होता है और शरीर का क्लेश दूर हो जाता है, तब शरीर और चित्त-दोनों बहुत हल्के हो जाते हैं।
अन्य कर्मस्थान भावना के बल से उत्तरोत्तर विभूत होते जाते हैं; किन्तु यह कर्मस्थान अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। यहाँ तक कि यह उपस्थित भी नहीं होता। जब कर्मस्थान की उपलब्धि नहीं होती तो साधक को आसन से उठ जाना चाहिये। पर यह विचार कर न उठना चाहिये कि आचार्य से पूछना है कि क्या मेरा कर्मस्थान नष्ट हो गया है। ऐसा विचार करने से कर्मस्थान नवीन हो जाता है। इसलिये अनुपलब्ध आश्वास प्रश्वास प्रवर्तन के समय नासिकाग्र का स्पर्श करते हैं और जिसकी नाक छोटी होती है उसके आश्वास प्रश्वास का उत्तरोष्ठ का स्पर्श कर प्रवर्तित होते हैं। स्मृतिसम्प्रजन्यपूर्वक साधक को प्रकृत स्पर्शस्थान में स्मृति प्रतिष्ठित करनी चाहिये। प्रकृतस्पर्श स्थान को छोड़कर अन्यत्र पर्येषण न करना चाहिये। इस उपाय से अनुपस्थित आश्वास प्रश्वास की सम्यक् उपलब्धि में साधक समर्थ होता है।
भावना करते करते प्रतिभागनिमित्त उत्पन्न होता है। यह किसी को मणि के सदृश, किसी को मुक्ता, कुसुममाला, धूम-शिखा, पद्मपुष्प, चन्द्रमण्डल या सूर्यमण्डल के सदृश उपस्थित होता है। प्रतिभागनिमित्त की उत्पत्ति संज्ञा से ही होती है। इसलिये संज्ञा की विविधता के कारण कर्मस्थान के एक होते हुए भी प्रतिभागनिमित्त नानारूप से प्रकट होता है। जो यह जानता है कि आश्वास प्रश्वास और निमित्त एकचित्त के आलम्बन नहीं हैं, उसी का कर्मस्थान उपचार और अर्पणा समाधि का लाभ करता है। प्रतिभागनिमित्त के इस प्रकार उपस्थित होने पर साधक को इसकी सूचना आचार्य को देनी चाहिये। आचार्य, साधक के उत्साह को बढ़ाते हुए, बार बार भावना करने का उपदेश करता है। उक्त प्रकार के प्रतिभागनिमित्त में ही अनुबन्धना और स्पर्श का परित्याग कर भावना चित्त की स्थापना की