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________________ १२६ विसुद्धिमग्गो सतिवसेन उपनिबन्धनथम्भमूले ठत्वा अस्सासपस्सासदोलं खिपित्वा तत्थेव निमित्ते सतिया निसीदन्तो कमेन आगच्छन्तानं च गच्छन्तानं च फुट्टफुट्ठानं अस्सासपस्सासानं आदिमज्झपरियोसानं सतिया अनुगच्छन्तो तत्थ च चित्तं ठपेन्तो पस्सति, न च तेसं दस्सनत्थं ब्यावटो होति। अयं पङ्गळोपमा। . अयं पन दोवारिकपमा-सेय्यथापि दोवारिको नगरस्स अन्तो च बहि च "को त्वं? कुतो वा आगतो? कुहिं वा गच्छसि? किं वा ते हत्थे" ति न वीमंसति। न हि तस्स ते भारा, द्वारप्पत्तं द्वारप्पत्तं येव पन वीमंसति; एवमेव इमस्स भिक्खुनो अन्तोपविट्ठवाता च बहिनिक्खन्तवाता च न भारा होन्ति, द्वारप्पत्ता द्वारप्पत्ता येव भारा ति। अयं दोवारिकूपमा। ककचूपमा पन आदितो पट्टाय एवं वेदितब्बा। वुत्तं हेतं "निमित्तं अस्सासपस्सासा अनारम्मणमेकचित्तस्स। अजानतो च तयो धम्मे भावना नुपलब्भति॥ निमित्तं अस्सासपस्सासा अनारम्मणमेकचित्तस्स। जानतो च तयो धम्मे भावना उपलब्भती" ति॥ - (खु०नि० ५/१९९) "कथं इमे तयों धम्मा एकचित्तस्स आरम्मणा न होन्ति, न चिमे तयो धम्मा अविदिता होन्ति, न च विक्खेपं गच्छति, पधानं च पञ्जायति, पयोगं च साधेति, विसेसमधिगच्छति? क्रम से आते हुए एवं जाते हुए झूले के पटरे के दोनों सिरों और मध्य को देखता है, किन्तु दोनों सिरों और मध्य को देखने के लिए अपने स्थान को नहीं छोड़ता; वैसे ही यह भिक्षु स्मृति द्वारा उपनिबन्धरूपी स्तम्भ के नीचे रहते हुए, आश्वास-प्रश्वासरूपी झूले को धक्का देकर, उसी निमित्त में स्मृति द्वारा बैठा हुआ, क्रमशः आते जाते स्पृष्ट स्पृष्ट स्थानों में आश्वास-प्रश्वासों के आदि, मध्य और अन्त का स्मृति द्वारा अनुगमन करता है, एवं वहीं चित्त को स्थिर रखते हुए देखता है, उन्हें देखने के लिये अपना स्थान नहीं छोड़ता। यह पङ्ग की उपमा हुई। (क) द्वारपाल की उपमा यह है-जैसे कि द्वारपाल नगर के भीतर और बाहर (रहने वालों के बारे में) यों जाँच-पड़ताल नहीं करता-'तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? कहाँ जा रहे हो? या, तुम्हारे हाथ में क्या है?'-क्योंकि यह उसका उत्तरदायित्व नहीं है, वह तो द्वार पर आये हुए को ही जाँच-पड़ताल करता है; वैसे ही इस भिक्षु को भीतर गयी एवं बाहर निकली हुई वायु से कुछ लेना देना नहीं है, द्वार पर उपस्थित से ही काम है। (ख) आरे की उपमा को प्रारम्भ से लेकर यों जानना चाहिये। क्योंकि कहा गया है-"निमित्त, आश्वास और प्रश्वास-ये एक चित्त के आलम्बन नहीं होते। इन तीन धर्मों को न जानने वाले को (आनापानस्मृति की) भावना प्राप्त नहीं होती। निमित्त, आश्वास और प्रश्वास एक चित्त के आलम्बन नहीं होते। इन तीन धर्मों को जानने वाले को ही (आनापानस्मृति की) भावना प्राप्त होती है।" (खु० नि० ५/१९९) ऐसा किस प्रकार है कि ये तीनों धर्म एक चित्त के आलम्बन नहीं हैं, कि वे फिर भी अज्ञात नहीं हैं? कि चित्त विक्षेप को प्राप्त नहीं होता? कि (उसे) वीर्य (प्रधान) जान पड़ता
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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