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________________ १२५ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिहेसो विक्खेपगतं चित्तं सारद्धाय चेव होति इञ्जनाय च। यथाह-"अस्सासादिमझपरियासानं सतिया अनुगच्छतो अज्झत्तं विक्खेपगतेन चित्तेन कायो पि चित्तं पि सारद्धा च होन्ति इञ्जिता च फन्दिता च। पस्सासादिमझपरियोसानं सतिया अनुगच्छतो बहिद्धा विक्खेपगतेन चित्तेन कायो पि चित्तं पि सारद्धा च होन्ति इञ्जिता च फन्दिता चा" (खु० ५/१९३) ति। तस्मा अनुबन्धनाय मनसिकरोन्तेन आदिमज्झपरियोसानवसेन न मनसिकातब्बं। अपि च खो फुसनावसेन च ठपनासेन च मनसिकातब्बं । (३) गणनानुबन्धनावसेन विय हि फुसना-ठपनावसेन विसुं मनसिकरो नत्थि। फुट्टफुट्ठट्ठाने येव पन गणेन्तो गणनाय च फुसनाय च मनसिकरोति। तत्थेव गणनं पटिसंहरित्वा ते सतिया अनुबन्धन्तो, अप्पनावसेन च चित्तं ठपेन्तो, अनुबन्धनाय च फुसनाय च ठपनाय च मनसिकरोती ति वुच्चति। स्वायमत्थो अट्ठकथासु वुत्तपङ्गळदोवारिकूपमाहि, पटिसम्भिदायं वुत्तककचूपमाय च वेदितब्बो। ___तत्रायं पङ्गुळोपमा-सेय्यथापि पङ्गुळो' दोलाय कीळतं मातापुत्तानं दोलं खिपित्वा तत्थेव दोलाथम्भमूले निसिन्नो कमेन आगच्छन्तस्स च गच्छन्तस्स च दोलाफलकस्स उभो कोटियो मज्झंच पस्सति, न च उभोकोटिमज्झानं दस्सनत्थं ब्यावटो होति; एवमेवायं भिक्खु है। भीतर प्रवेश करने वाली वायु का आदि नासिकाग्र, मध्य हृदय और अन्त नाभि है। (इसलिये) वैसे (आदि, मध्य, अन्त का) अनुगमन करने वाले का विक्षिप्त चित्त परेशानी और (कर्मस्थान की) अस्थिरता का कारण होता है। जैसा कि कहा गया है-"आश्वास के आदि, मध्य और अन्त का स्मृति से अनुगमन करने वाले के, भीतरी विक्षेप में पड़े हुए चित्त के कारण, काया एवं चित्त भी व्याकुल, अस्थिर और चञ्चल होते हैं। प्रश्वास के आदि, मध्य और अन्त का स्मृति से अनुगमन करने वाले के, बाहरी विक्षेप में पड़े हुए चित्त के कारण, काया एवं चित्त भी व्याकुल, अस्थिर एवं चञ्चल होते हैं।" (खु० ५/१९३)। अतः अनुबन्धना द्वारा मनस्कार करने वाले को आदि, मध्य और अन्त के अनुसार मनस्कार नहीं करना चाहिये, अपितु स्पर्श एवं स्थापना (अर्पणा) के अनुसार मनस्कार करना चाहिये। ३. स्पर्श-जैसे अनुबन्धना से पृथक् रूप में, गणना द्वारा मनस्कार होता है, वैसे स्थापना से पृथक् रूप में स्पर्श द्वारा मनस्कार नहीं होता। स्पृष्ट स्पृष्ट स्थानों को गिनते समय ही, गणना एवं स्पर्श द्वारा मन में लाता है। उसी स्थान पर जब वह गिनना छोड़कर, स्मृति द्वारा उन्हें अनुबद्ध (सम्बद्ध) करते हुए, अर्पणा द्वारा चित्त को स्थापित करता है, तब कहा जाता है कि (वह) अनुबन्धना, स्पर्श एवं स्थापना द्वारा मन में लाता है। इस अर्थ को अट्ठकथाओं में उल्लिखित पक्ष और द्वारपाल (पङ्गल-दोवारिक) की उपमा से, एवं पटिसम्भिदा में उल्लिखित आरा (-कवच) की उपमा से समझना चाहिये। ___ उसमें, पङ्ग की उपमा यह है-जैसे कोई पङ्ग (पैरों से चलने में असमर्थ व्यक्ति) झूले में क्रीड़ा करते हुए माँ बेटे के झूले, को धक्का देते हुए वहीं झूले के खम्भे के नीचे बैठा बैठा १. पङ्गुळो ति। पीठसप्पी।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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