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________________ १२२ विसुद्धिमग्गो चित्तं सम्पहंसेत्वा आचरियुग्गहतो एकपदं पि असम्मुव्हन्तेन इदं आनापानस्सतिकम्मट्ठानं मनसिकातब्बं। ६८. तत्रायं मनसिकारविधि गणना अनुबन्धना फुसना ठपना सल्लक्खणा। विवट्टना पारिसुद्धि तेसं च पटिपस्सना॥ तत्थ गणना ति। गणना येव। अनुबन्धमा ति। अनुवहना । फुसना ति। फुट्ठट्टानं । ठपना ति। अप्पना। सलक्खणा ति। विपस्सना। विवट्टना तिा मग्गो। पारिसुद्धा ति। फलं। तेसं च पटिपस्सना ति। पच्चवेक्खणा। (१) तत्थ इमिना आदिकम्मिकेन कुलपुत्तेन पठमं गणनाय इदं कम्मट्ठानं मनसि कातब्बं । गणन्तेन च पञ्चन्नं हेट्ठा न ठपेतब्बं । दसन्नं उपरि न नेतब्बं । अन्तरा खण्डं न दस्सेतब्बं । पञ्चन्नं हेट्ठा ठपेन्तस्स हि सम्बाधे ओकासे चित्तुप्पादो विफन्दति, सम्बाधे वजे सन्निरुद्धगोगणो विय। दसन्नं पि उपरि नेन्तस्स गणननिस्सितको चित्तुप्पादो होति। अन्तरा खण्डं दस्सेन्तस्स "सिखापत्तं नु खो मे कम्मट्ठानं, नो" ति चित्तं विकम्पति । तस्मा एते दोसे वजेत्वा गणेतब्बं । . गणेन्तेन च पठमं दन्धगणनाय धञ्जमापकगणनाय गणेतब्बं । धञमापको हि नाळिं को नष्ट कर चुके, भोजन कर एवं भोजन से उत्पन्न आलस्य को दूर कर चुके, सुखपूर्वक बैठे हुए (भिक्षु) को चाहिये कि रत्नत्रय के गुणों के बार बार स्मरण से चित्त को प्रमुदित करते हुए तथा आचार्य से सीखे गये एक पद को भी न भुलाते हुए इस आनापान-स्मृति कर्मस्थान का मनस्कार करें। ६८. मनस्कार की विधि इस प्रकार है १. गणना, २. अनुबन्धना, ३. स्पर्श करना, ४. स्थापना, ५. संलक्षण, ६. विवर्तन, ७. पारिशुद्धि और ८. उनका प्रत्यवेक्षण। गणना-गिनती करना। अनुबन्धना-(आश्वास-प्रश्वास के विषय में स्मृति का) निरंतर अनुप्रवर्तन (जारी रहना)। फुसना-स्पर्श किया हुआ स्थान । ठपना-अर्पणा (आलम्बन में चित्त को स्थिर रखना)। सलक्खणा-विपश्यना। विवट्टना-मार्ग। पारिसुद्धि-फल। तेसं च पटिपस्सना और उनका प्रत्यवेक्षण। १. गणना-इनमें, आदिकर्मिक कुलपुत्र को पहले गणना द्वारा इस कर्मस्थान को मन में लाना चाहिये, एवं गिनती करते समय पाँच से पहले नहीं रुकना चाहिये। दस से ऊपर नहीं ले जाना चाहिये। पाँच से नीचे रुकने वाले के विचार (चित्तोत्पाद) सीमित परिधि में चञ्चल होते हैं, गोशाला में घिरी हुई गायों के झुण्ड के समान। दस से ऊपर जाने वाले के विचार गणना (न कि आश्वास-प्रश्वास) पर आश्रित हो जाते हैं। बीच में अन्तर डालने वाले का चित्त यों अस्थिर रहता है कि "मेरा कर्मस्थान पूर्ण हुआ या नहीं।" अतएव उसे इन दोषों को छोड़ते हुए गिनना चाहिये। १. अनुवहना ति। अस्सासपस्सासानं अनुगमनवसेन सतिया निरन्तरं अनुपवत्तना।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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