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________________ १२१ अनुस्पतिकम्मट्ठाननिद्देसो ६६. यस्मा पनेत्थ इदमेव चतुक्कं आदिकम्मिकस्स कम्मट्ठानवसेन वुत्तं । इतरानि पन तीणि चतुक्कानि एत्थ पत्तज्झानस्स वेदनाचित्तधम्मानुपस्सनावसेन वुत्तानि । तस्मा इदं कम्मट्ठानं भावेत्वा आनापानचतुत्थंज्झानपदट्ठानाय विपस्सनाय सह पटिसम्भिदाहि अरहत्तं पापुणितुकामेन आदिकम्मिकेन कुलपुत्तेन पुब्बे वुत्तनयेनेव सीलपरिसोधनादीनि सब्बकिच्चानि कत्वा वुत्तप्पकारस्स आचरियस्स सन्तिके पञ्चसन्धिकं' कम्मट्ठानं उग्गहेतब्बं । तत्रिमे पञ्च सन्धयो– उग्गहो, परिपुच्छा, उपट्ठानं, अप्पना, लक्खणं ति । तत्थ उग्गहो नाम कम्मट्ठानस्स उग्गहनं । परिपुच्छा नाम कम्मट्ठानस्स परिपुच्छना । उपट्ठानं नाम कम्मट्ठानस्स उपट्ठानं । अप्पना नाम कम्मट्ठानस्स अप्पना । लक्खणं नाम कम्मट्ठानस्स लक्खणं । "एवंलक्खणमिदं कम्मट्ठानं" ति कम्मट्ठानसभावूपधारणं ति वुत्तं होति । ६७. एवं पञ्चसन्धिकं कम्मट्ठानं उग्गहन्तो अत्तना पि न किलमति, आचरियं पि न विहेसेति । तस्मा थोकं उद्दिसापेत्वा बहुकालं सज्झायित्वा एवं पञ्चसन्धिकं कम्मट्ठानं उग्गहेत्वा आचरियस्स सन्तिके वा अञ्ञत्र वा पुब्बे वुत्तप्पकारे सेनासने वसन्तेन उपच्छिन्नखुद्दकपलिबोधेन कतभत्तकिच्चेन भत्तसम्पदं पटिविनोदेत्वा सुखनिसिन्नेन रतनत्तयगुणानुस्सरणेन है, अनुपश्यना ज्ञान है। काया उपस्थान (तो) है, ( किन्तु वह) स्मृति नहीं है। स्मृति उपस्थान भी है, स्मृति भी है। उस स्मृति और उस ज्ञान से उस काया की अनुपश्यना करता है । अतः कहा गया है - "काये कायानुपस्सना सतिपट्ठानभावना" (खु० नि० ५ / २१४) । यह कायानुपश्यनासम्बन्धी प्रथम चतुष्क की यथाक्रम शब्दशः व्याख्या है ॥ अन्य चतुष्कों की भावनाविधि : ६६. प्रारम्भ करने वाले (भिक्षु) के लिये कर्मस्थान के रूप में प्रथम चतुष्क कहा गया है; किन्तु अन्य तीन चतुष्क (इसी प्रथम चतुष्क में) ध्यान प्राप्त कर चुकने वाले के लिये वेदना, चित्त और धर्मों की अनुपश्यना के रूप में बतलाये गये हैं। अतएव इस कर्मस्थान की भावना कर, आनापान में प्राप्त हुए चतुर्थ ध्यान के कारण उत्पन्न विपश्यना के साथ पटिसम्भिदा द्वारा अर्हत्त्व प्राप्त करने की कामना करने वाले आदिकर्मिक (प्रारम्भ करने वाले) कुलपुत्र को पूर्वोक्त प्रकार से ही शील के परिशोधन आदि सभी कार्य कर, उक्त प्रकार के आचार्य के पास पञ्चसन्धिक (पाँच भागों वाले) कर्मस्थान का ग्रहण करना चाहिये । पाँच सन्धियाँ ये हैं- उद्ग्रह, परिपृच्छा, उपस्थान, अर्पणा एवं लक्षण । इनमें उद्ग्रहकर्मस्थान का ग्रहण है। परिपृच्छा - कर्मस्थान के विषय में प्रश्न पूछना है। उपस्थान - कर्मस्थान की स्थापना (उपस्थान) है। अर्पणा - कर्मस्थान की अर्पणा है। लक्षण - कर्मस्थान का लक्षण है । अर्थात् " यह कर्मस्थान इस लक्षण वाला है" - यों कर्मस्थान के स्वभाव का निश्चय है । ६७. यों पाँच सन्धियों वाले कर्मस्थान का ग्रहण करने वाला स्वयं को भी नहीं थकाता और आचार्य को भी उद्विग्न नहीं करता। इसलिये ( आचार्य से ) थोड़ा सा कहलवा कर ( एवं ) उसका लम्बे समय तक पाठ करते हुए, यों पाँच भागों वाले कर्मस्थान का ग्रहण कर आचार्य के समीप या कहीं अन्यत्र (जाकर) पूर्वोक्त प्रकार के शयनासन में रहने वाले, छोटे छोटे परिबोधों १. पञ्चसन्धिकं ति । पञ्चपब्बं, पञ्चभागं ति अत्थो ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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