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________________ १०२ विसुद्धिमग्गो यम्हि च मुत्तस्स भरितेः 'पस्सावं करोमा' ति सत्तानं आयूहनं होति। परिच्छेदतो वत्थिअब्भन्तरेन चेव मुत्तभागेन च परिच्छिन्नं । अयमस्स सभागपरिच्छेदो। विसभागपरिच्छेदो पन केससदिसो येव। (३२) ५१. एवं हि केसादिके कोट्ठासे वण्णसण्ठानदिसोकासपरिच्छेदवसेन ववत्थपेत्वा 'अनुपुब्बतो नातिसीघतो' ति आदिना नयेन वण्णसण्ठानगन्धासयोकासवसेन पञ्चधा पटिक्कूला पटिक्कूला ति मनसिकरोतो पण्णत्तिसमतिक्कमावसाने; सेट्यथापि चक्खुमतो पुरिसस्स द्वत्तिंसवण्णानं कुसुमानं एकसुत्तकगन्थितं मालं ओलोकेन्तस्स सब्बपुप्फानि अपुब्बापरियमिव पाकटानि होन्ति; एवमेव 'अत्थि इमस्सि काये केसा' ति इमं कायं ओलोकेन्तस्स सब्बे ते धम्मा अपुब्बापरिया व पाकटा होन्ति । तेनं वुत्तं मनसिकारकोसल्लकथायं-"आदिकम्मिकस्स हि 'केसा' ति मनसिकरोतो मनसिकारो गन्त्वा 'मुत्तं' ति इमं परियोसानकोट्ठासमेव आहच्च तिद्रुती" ति। ५२. सचे पन बहिद्धा पि मनसिकारं उपसंहरति, अथस्स एवं सब्बकोट्ठासेसु पाकटीभूतेसु आहिण्डन्ता मनुस्सतिरच्छानादयो सत्ताकारं विजहित्वा कोट्ठासरासिवसेनेव निचली दिशा में उत्पन्न होता है। अवकाश से-वस्ति के भीतर रहता है। 'वस्ति' वस्तिपुट (मूत्रकोष) को कहते हैं। जैसे 'चन्दनिका' (गन्दे पानी से भरी गड़ही) में रखे गये विना मुँह वाले रवनघट में चन्दनिका का पानी (रस) प्रवेश तो करता है, किन्तु उसके प्रवेश-मार्ग का पता नहीं चलता; वैसे ही जिस (मूत्रकोष) में शरीर से मूत्र प्रवेश- तो करता है, किन्तु उसका प्रवेश-मार्ग जान नहीं पड़ता, निकलने का भाग प्रकट होता है; और जिसमें भर जाने पर 'पेशाब करेंगे' ऐसा प्राणियों को अनुभव होता है। परिच्छेद से-वस्ति के भीतरी भाग से एवं मूत्र-भाग से परिच्छिन्न है। यह इसका सभाग परिच्छेद है। विसभाग परिच्छेद केश के समान ही है। (३२) ५१. इस प्रकार केश आदि भागों का वर्ण, संस्थान, दिशा, अवकाश, परिच्छेद के अनुसार निश्चय करते हुए 'क्रम से, बहुत शीघ्रता से नहीं' आदि प्रकार से वर्ण, संस्थान, गन्ध, आशय, अवकाश के अनुसार पाँच प्रकार से प्रतिकूल, प्रतिकूल' यों चिन्तन करने वाले (योगी) के लिये; प्रज्ञप्ति-समतिक्रमण पूरा हो जाने पर, 'इस शरीर में केश हैं'-यों इस शरीर को देखनेवाले के लिये सभी धर्म वैसे ही क्रमिक रूप में प्रकट होते हैं, जैसे कि जब कोई चक्षुष्मान् व्यक्ति बत्तीस रंगों के फूलों को एक धागे में गूंथकर बनायी गयी माला को देखता है तब उसे सभी फूल एक क्रम में जान पड़ते हैं। . इसीलिये मनस्कार-कौशल की कथा (वर्णन) में कहा गया है-आदिकर्मिक जब चिन्तन (मनस्कार) करता है, तब यह केशों से 'मूत्र' इस अन्तिम भाग पर ही जाकर रुकता है। ५२. यदि (वह योगी) बाहर (दूसरों के शरीर पर) भी चिन्तन का प्रयोग करता है तब १. कहीं कहीं 'यवनघट' पाठ भी मिलता है। यह एक विशेष प्रकार का घट था जिसमें रोमछिद्रों के समान छोटे छोटे छिद्र होते थे, जिनसे रिस रिस कर पानी भीतर प्रवेश करता था। जिन प्रदेशों में पानी की कमी रही होगी, उनमें ऐसे घट गन्दे जल को छान कर काम में लाने के लिये उपयोग में लाये जाते रहे होंगे। -अनु०
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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