SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो १०१ पूरेत्वा तिट्ठति वा पग्घरति वा । सिङ्घाणिकापरिग्गण्हकेन च योगिना नासापुटे पूरेत्वा ठितवसेनेव परिग्गण्हितब्बा। परिच्छेदतो सिङ्घाणिकाभागेन परिच्छिन्ना, अयमस्सा सभागपरिच्छेदो। विसभागपरिच्छेदो पन केससदिसो येव। (३०) ४९. लसिका ति। सरीरसन्धीनं अब्भन्तरे पिच्छिलकणपं । सा वण्णतो कणिकारनिय्यासवण्णा। सण्ठानतो ओकाससण्ठाना। दिसतो द्वीसु दिसासु जाता। ओकासतो अट्ठिसन्धीनं अब्भञ्जनकिच्चं साधयमाना असीतिसतसन्धीनं अब्भन्तरे ठिता। यस्स चेसा मन्दा होति, तस्स उट्ठहन्तस्स निसीदन्तस्स अभिक्कमन्तस्स पटिक्कमन्तस्स समिञ्जन्तस्स पसारेन्तस्स अट्टिकानि कटकटायन्ति, अच्छरासदं करोन्तो विय सञ्चरति । एकयोजनद्वियोजनमत्तं अद्धानं गतस्स वायोधातु कुप्पति, गत्तानि दुक्खन्ति । यस्स पन बहुका होति, तस्स उट्ठाननिसज्जादीसु न अट्ठानि कटकटायन्ति, दीघं पि अद्धानं गतस्स न वायोधातु कुप्पति, न गत्तानि दुक्खन्ति। परिच्छेदतो लसिकाभागेन परिच्छिन्ना। अयमस्सा सभागपरिच्छेदो। विसभागपरिच्छेदो पन केससदिसो येव। (३१) ५०. मुत्तं ति। मुत्तरसं। तं वण्णतो मासखारोदकवण्णं। सण्ठानतो अधोमुख?पितउदककुम्भअब्भन्तरगतउदकसण्ठानं। दिसतो हेट्ठिमाय दिसाय जातं। ओकासतो वत्थिस्स अब्भन्तरे ठितं । वत्थि नाम वत्थिपुटो वुच्चति। यत्थ सेय्यथापि चन्दनिकाय' पक्खित्ते अमुखे रवणघटेर चन्दनिकारसो पविसति, न चस्स पायति, निक्खमनमग्गो पन पाकटो होति। के छिद्रों से नीचे उतरकर नासिका-पुट में भर जाती है, या बहने लगती है। सिंहाणक का परिग्रह करने वाले योगी को नासिका-पुटों को भरकर स्थित के रूप में परिग्रह करना चाहिये। परिच्छेद से-सिंहाणक भाग से परिच्छिन्न है। यह इसका सभाग परिच्छेद है। विसभाग परिच्छेद केश के समान ही है। (३०) ४९. लसीका-शरीर के जोड़ों में रहने वाला चिकना मैल। वह वर्ण से-कर्णिकार (वृक्ष) के गोंद के रंग की होती है। संस्थान से-अवकाश के आकार की होती है। दिशा सेदोनों दिशाओं में उत्पन्न है। अवकाश से-अस्थियों की सन्धियों को स्निग्ध करने का कार्य करते हुए, एक सौ अस्सी अस्थियों में रहती है। जिसमें यह कम होती है, उसकी अस्थियाँ उठते बैठते, चलते फिरते, समेटते पसारते समय कटकटाती हैं। यह जब चलता है तब ऐसा लगता है मानो चुटकी बजाते हुए. चल रहा हो। एक दो योजन मात्र चलने पर भी (उसकी) वायु-धातु कुपित हो जाती है, उसके उठने बैठने आदि के समय अस्थियाँ कुपित नहीं होती, न ही अङ्ग दुखते हैं। परिच्छेद से-लसीका भाग से परिच्छिन्न है।यह इसका सभाग परिच्छेद है। विसभाग परिच्छेद केश के समान ही है। (३१) ५०. मूत्र-पेशाब। वह वर्ण से-उर्द (दाल) के धोवन के रंग का होता है। संस्थान से-औंधे मुँह रखे गये पानी के घड़े के भीतर के पानी के आकार का होता है।..दिशा से१. उच्छिट्ठोदकगब्भमलादीनं छड्डनट्ठानं चन्दनिका। २. रवणघटं नाम पकतिया समुखमेव होति। यस्स पन आरग्गमत्तं पि उदकस्स पविसनमुखं नत्थि, तं दस्सेतुं-"अमुखे रवणघटे" ति वुत्तं ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy