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________________ अन्तरङ्गकथा उत्पत्ति होती है और इस प्रकार ध्यान के निष्पन्न होने से व्यापार का अभाव होता है और उपेक्षा उत्पन्न होती है। १३ इन ९ प्रकारों से दीर्घ श्वास लेता हुआ या दीर्घ श्वास छोड़ता हुआ या दोनों क्रियाओं को करता हुआ साधक जानता है कि मैं दीर्घ श्वास लेता हूँ या दीर्घ श्वास छोड़ता हूँ या दोनों क्रियाओं को करता हूँ। ऐसा साधक इनमें से किसी एक प्रकार से कायानुपश्यना नामक स्मृत्युपस्थान की भावना सम्पन्न है । ९ प्रकार से आश्वास प्रश्वास होते हैं, उनको 'काय' कहते हैं। यहाँ 'काय' समूह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आश्वास प्रश्वास का आश्रयभूत शरीर भी 'काय' कहलाता है और यहाँ वह भी संगृहीत है। 'अनुपश्यना' ज्ञान को कहते हैं। यह ज्ञान शमथवश निमित्तज्ञान है और विपश्यनावश नाम रूप की व्यवस्था के अनन्तर कार्याविषयक यथाभूत ज्ञान है। इसलिये 'कायानुपश्यना' वह ज्ञान है जिसके द्वारा काय के यथाभूत स्वभाव की प्रतीति होती है। जिसके द्वारा श्वास प्रश्वास आदि शरीर की समस्त आभ्यन्तरिक और बाह्य क्रियाएँ ज्ञान और स्मृतिपूर्वक होती हैं। जिसके द्वारा शरीर का अनित्यभाव, अनात्मभाव दुःखभाव और अशुचिभाव जाना जाता है। इस ज्ञान के द्वारा यह विदित होता है कि समस्त 'काय' - पैर के तलुवे से ऊपर और केशाग्र से नीचे - केवल नाना प्रकार के मलों से परिपूर्ण है। इस का केश, लोम आदि ३२ आकार अपवित्र और जुगुप्सा उत्पन्न करनेवाले हैं। वह इस काय को रचना के अनुसार करता है कि इस काय में पृथ्वी धातु है, तेजो धातु है, जलधातु है। वह काय में अहम्भाव और ममत्व नहीं देखता तथा काय को कायमात्र ही समझता है। इसी प्रकार जब वह जल्दी जल्दी श्वास छोड़ता है या लेता है, तब जानता है कि- मैं अल्पकाल में श्वास छोड़ता या लेता हूँ। इस ह्रस्व आश्वास प्रश्वास की क्रिया भी दीर्घ आश्वास-प्रश्वास की क्रिया के समान ही ९ प्रकार से की जाती है। यहाँ तक पूर्ववत् साधक कायानुपश्यना नामक स्मृत्युपस्थान की भावना सम्पन्न करता है । ३. साधक सकल आश्वासकाय के आदि, मध्य और अवसान - इन सभी भागों का अवरोध कर अर्थात् उन्हें विशद और विभूत कर श्वासपरित्याग करने का अभ्यास करता है। इसी तरह सकल प्रश्वासकाय के आदि, मध्य और अवसान इन सब भागों का अवरोध कर श्वास ग्रहण करने का प्रयत्न करता है। उसके आश्वास प्रश्वास का प्रवर्तन ज्ञानयुक्त चित्त से होता है। किसी को केवल आदि स्थान, किसी को केवल मध्य, किसी को केवल अवसान स्थान और किसी को तीनों स्थान विभूत होते हैं। साधक को स्मृति और ज्ञान को प्रतिष्ठित कर तीनों स्थानों में ज्ञानयुक्त चित्त को प्रेरित करना चाहिये। इस प्रकार आनापान स्मृति की भावना करता हुआ साधक स्मृतिपूर्वक भावनाचित्त के साथ उच्चकोटि के शील, समाधि और प्रज्ञा कां आसेवन करता है। पहले दो प्रकार के आवास प्रश्वास के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना होता; किन्तु इनके आगे ज्ञानोत्पादनादि के लिये सातिशय उद्योग करना होता है। ४. साधक स्थूल कायसंस्कार का उपशम करते हुए श्वास छोड़ने और श्वास ग्रहण करने का अभ्यास करता है। कर्मस्थान का आरम्भ करने के पूर्व शरीर और चित्त- दोनों क्लेशयुक्त होते हैं। उनका गुरुभाव होता है। शरीर और चित्त की गुरुता के कारण आश्वास-प्रश्वास प्रबल और स्थूल होते हैं; नाक के नथुने भी उनके वेग को नहीं रोक सकते। और साधक को मुँह से भी साँस लेना पड़ता है। किन्तु जब साधक पृष्ठवंश को सीधा कर पर्यङ्क आसन से बैठता है और स्मृति को सम्मुख उपस्थापित करता है तब उसके शरीर और चित्त का परिग्रह होता है। इससे बाह्य विक्षेप का उपशम होता है, चित्त एकाग्र होता है और
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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