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________________ विसुद्धिमग्गो चित्त की एकाग्रता सुलभ हो जाती है। और कर्मस्थान वीथि का उल्लङ्घन न कर वृद्धि को प्राप्त होता है। पर्यङ्क आसन में बायीं जाँघ पर दाहिना पैर और दाहिनी जाँघ पर बायाँ पैर रखना होता है। यह पद्मासन का लक्षण है। प्रायः साधक इसी आसन का अनुष्ठान करते हैं। __ साधक पर्यङ्कबद्ध हो आसन की स्थिरता को प्राप्त कर विरोधी आलम्बनों का चित्तद्वार से निवारण करता है। और इसी कर्मस्थान को अपने सम्मुख रखता है। वह स्मृति का कभी सम्प्रमोष नहीं होने देता। वह स्मृतिपरायण हो श्वास छोड़ता और श्वास लेता है। आश्वास या प्रश्वास की एक भी प्रवृत्ति स्मृतिरहित नहीं होती, अर्थात् यह समस्त क्रिया उसके ज्ञान की परिधि में होती है। जब वह दीर्घ श्वास छोड़ता है या दीर्घ श्वास लेता है तब वह अच्छी तरह जानता है कि मैं दीर्घ श्वास छोड़ रहा हूँ या दीर्घ श्वास ले रहा हूँ। स्मृति आलम्बन के समीप सदा उपस्थित रहती है तथा प्रत्येक क्रिया की प्रत्यवेक्षा करती है। विसुद्धिमग्ग में अधोलिखित १६ प्रकार से आश्वास प्रश्वास की क्रियाओं के करने का विधान है : १. यदि वह दीर्घ श्वास छोड़ता है तो जानता है कि मैं दीर्घ श्वास छोड़ता हूँ, यदि वह दीर्घ श्वास लेता है तो जानता है कि मैं दीर्घ श्वास लेता हूँ। . २. यदि वह ह्रस्व श्वास छोड़ता या ह्रस्व श्वास लेता है तो जानता है कि मैं ह्रस्व श्वास छोड़ता या ह्रस्व श्वास लेता हूँ। आश्वास प्रश्वास की दीर्घता ह्रस्वता कालनिमित्त मानी जाती है। कुछ लोग धीरे धीरे श्वास लेते हैं और धीरे धीरे ही श्वास छोड़ते हैं, इनका आश्वास प्रश्वास दीर्घकालव्यापी होता है। कुछ लोग शीघ्रता से श्वास लेते हैं और शीघ्रता से श्वास छोड़ते हैं। इनका आश्वास प्रश्वास अल्पकालव्यापी होता है। यह विभिन्नता शरीर-स्वभाववश देखी जाती है। साधक ९ प्रकार से आश्वास प्रश्वास की क्रिया को ज्ञानपूर्वक करता है। इस प्रकार भावना की निरन्तर प्रवृत्ति होती रहती है। १. जब वह धीरे धीरे श्वास छोड़ता है, तो जानता है कि मैं दीर्घ श्वास छोड़ता हूँ। २. जब वह धीरे धीरे श्वास लेता है, तो जानता है कि मैं दीर्घ श्वास लेता हूँ। और ३. जब धीरे धीरे आश्वास प्रश्वास दोनों क्रियाओं को करता है, तो जानता है कि मैं आश्वास प्रश्वास दोनों क्रियाओं को दीर्घकाल में करता हूँ। यह तीन प्रकार केवल कालनिमित्त हैं। इनमें पूर्व की अपेक्षा विशेष प्राप्त करने की कोई चेष्टा नहीं पायी जाती। ४. भावना करते करते साधक को यह शुभ इच्छा (छन्द) उत्पन्न होती है कि मैं इस भावना में विशेष निपुणता प्राप्त करूँ। इस प्रवृत्ति से प्रेरित हो वह विशेष रूप से भावना करता है और कर्मस्थान की वृद्धि करता है। ५. भावना के बल से भय और परिताप दूर हो जाते हैं और शरीर के आश्वास प्रश्वास पहले की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म हो जाते हैं। इस प्रकार इस शुभ इच्छा के कारण वह पहले से अधिक सूक्ष्म आश्वास, अधिक सूक्ष्म प्रश्वास और अधिक सूक्ष्म आश्वास प्रश्वास की क्रियाओं को दीर्घकाल में करता है। ६. आश्वास-प्रश्वास के सूक्ष्मतर भाव के कारण आलम्बन के अधिक शान्त होने से तथा कर्मस्थान की वीथि में प्रतिपत्ति होने से भावनाचित्त के साथ 'प्रामोद्य' अर्थात् तरुण प्रीति उत्पन्न होती है। ७. प्रामोद्यवश वह और भी सूक्ष्म श्वास दीर्घकाल में लेता है और भी सूक्ष्म श्वास दीर्घकाल में छोड़ता है तथा और भी सूक्ष्म आश्वास प्रश्वास अत्यन्त सूक्ष्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। ८. तब चित्त उत्पन्न प्रतिभागनिमित्त की ओर ध्यान देता है। और इसलिये वह प्राकृतिक दीर्घ आश्वास प्रश्वास से विमुख हो जाता है। ९. प्रतिभागनिमित्त के उत्पाद से समाधि की
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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