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________________ २४८ विशुद्धिमग्ग गणं सन्निपातेत्वा पि गच्छतु । कम्मट्ठानसीसेन पन गच्छन्तेन एककेन अदुतियेन मूलकम्मट्ठानं अविस्सज्जेत्वा तं मनसिकरोन्तेनेव सुसानं सोणादिपरिस्सयविनोदनत्थं कत्तरदण्डं वा यट्ठि वा गहेत्वा, सूपट्ठितभावसम्पादनेन असम्मुट्टं सतिं कत्वा मनच्छट्ठानं च इन्द्रियानं अन्तोगतभावसम्पादनतो अबहिगतमनेन हुत्वा गन्तब्बं । १६. विहारतो निक्खमन्तेनेव 'असुकदिसाय असुक्रद्वारेन निक्खन्तोम्ही' ति द्वारं सल्लक्खेतब्बं । ततो येन मग्गेन गच्छति, सो मग्गो ववत्थपेतब्बो - 'अयं मग्गो पाचीनदिसाभिमुखो वा गच्छति, पच्छिम.... उत्तर..... दक्खिणदिसाभिमुखो वा विदिसाभिमुखो वा' ति । 'इमस्मि पन ठाने वामतो गच्छति, इमस्मि ठाने दक्खिणतो; इमस्मि चस्स ठाने पासाणो, इमस्मि वम्मिको, इमस्मि रुक्खो, इमस्मि गच्छो, इमस्मि लता' - ति एवं गमनमग्गं ववत्थपेन्तेन निमित्तट्ठानं गन्तब्बं, नो च खो पटिवातं । पटिवातं गच्छन्तस्स हि कुणपगन्धो घानं पहरित्वा मत्थलुङ्गं वा सङ्घोभेय्य, आहारं वा छड्डापेय्य, विप्पटिसारं वा जनेय्य - 'ईदिसं नाम कुणपट्ठानं आगतोम्ही' ति । तस्मा पटिवातं वज्जेत्वा अनुवातं गन्तब्बं । सचे अनुवातमग्गेन न सक्का होति गन्तुं, अन्तरा पब्बतो वा पासाणो वा वति वा कण्टकट्ठानं वा उदकं वा चिक्खल्लं वा होति, चीवरकण्णेन नासं पिदहित्वा गन्तब्बं । इदमस्स गमनवत्तं । १७. एवं गतेन पन न ताव असुभनिमित्तं ओलोकेतब्बं । दिसा ववत्थपेतब्बा । १५. इसलिये यदि वह चित्त को संयत करने के उद्देश्य से शव को देखने जा रहा हो, तो वह चाहे तो घण्टी बजाकर भिक्षुगण को एकत्र करके भी जाय या घण्टी बजाकर पाठ समाप्त करके भी जाय, किन्तु कर्मस्थान को प्रमुखता देने वाले को वहाँ जाते समय अकेले, विना किसी को साथ लिये, मूल कर्मस्थान को छोड़े विना, उसके बारे में चिन्तन करते हुए, श्मशान में कुत्ते आदि के सम्भावित उपद्रव को दूर करने के लिये छड़ी या लाठी लेकर, स्मृति को उपस्थित बनाये रखकर, स्मृति को विस्मरण दोष से रहित करके और इन्द्रियों को अन्तर्मुख रखने से छह इन्द्रियों सहित मन को बाहर न जाने देते हुए, अन्तर्मुख रखते हुए जाना चाहिये । गमनविषयक नियम १६. विहार से निकलते समय "अमुक दिशा से, अमुक द्वार से निकल रहा हूँ" - इस प्रकार द्वार को ध्यान से देखना चाहिये। तत्पश्चात् जिस मार्ग से जाता है, उस मार्ग पर विचार करना चाहिये कि "यह मार्ग पूर्व दिशा की ओर जाता है या पश्चिम या उत्तर या दक्षिण दिशा की ओर या उपदिशा ( = विदिशा, जैसे पूर्वोत्तर, पश्चिमोत्तर आदि) की ओर। यहाँ से रास्ता बायीं ओर जाता है, यहाँ से दाहिनी ओर, इस स्थान पर पत्थर है, इस स्थान पर दीमक की बाँबी, इस पर वृक्ष, इस पर झाड़ी, इस पर लता" - इस प्रकार गमन-मार्ग का विचार करने वाले को ही निमित्त के स्थान पर जाना चाहिये, किन्तु हवा के रुख से विपरीत (= प्रतिवात) नहीं। क्योंकि हो सकता है कि हवा के रुख से • विपरीत जाने वाले की घ्राणेन्द्रिय पर दुर्गन्ध के झोंके से उसका मस्तिष्क भन्नाने लगे, वमन हो जाय या उसे इस प्रकार पछतावा होने लगे कि "कैसे घृणित स्थान पर आया हूँ!' इसलिये हवा से विपरीत जाने से बचते हुए, हवा के रुख के अनुकूल (= अनुवात) जाना चाहिये। यदि हवा के अनुकूल मार्ग से जाना सम्भव न हो, क्योंकि हो सकता है-बीच में पर्वत, झरना, पत्थर, चहारदीवारी, कँटीला स्थान, जल या कीचड़ हो तो चीवर के कोने से नाक बन्द करके जाना चाहिये। यह गमन के सम्बन्ध में इस भिक्षु का व्रत नियम या विधि है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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