________________
२४७
६. असुभकम्मछाननिद्देरा दिसतो पि ओकासतो पि परिच्छेदतो पि सन्धितो विवरतो निन्नतो थलतो समन्ततो। सो तं निमित्तं सुग्गहितं करोति, सूपधारितं उधारेति, सुववत्थितं ववत्थपेति। सो तं निमित्तं सुग्गहितं कत्वा सूपधारितं उपधारेत्वा सुववत्थितं ववत्थपेत्वा एको अदुतियो गच्छति उपट्ठिताय सतिया असम्मुट्ठाय, अन्तोगतेहि इन्द्रियेहि अबहिगतेन मानसेन गतागतमग्गं पच्चवेक्खमानो। सो चकमन्तो पि तब्भागियं येव चङ्कम अधिट्ठाति। निसीदन्तो पि तब्भागिय व आसनं पञपेति।
__ "समन्ता निमित्तुपलक्खणा किमत्थिया किमानिसंसा ति? समन्ता निमित्तुपलक्खणा असम्मोहत्था असम्मोहानिसंसा। एकादसविधेन निमित्तग्गाहो किमत्थियो किमानिसंसो ति? एकादसविधेन निमित्तग्गाहो उपनिबन्धनत्थो उपनिबन्धनानिसंसो। गतागतमग्गपच्चवेक्खणा किमत्थिया किमानिसंसा ति? गतागतमग्गपच्चवेक्षणा वीथिसम्पटिपादनत्था वीथिसम्पटिपादनानिसंसा।
"सो आनिसंसदस्सवी रतनसञ्जी हुत्वा चित्तकारं उपद्रुपेत्वा सम्पियायमानो तस्मि आरम्मणे चित्तं उपनिबन्धति–'अद्धा इमाय पटिपदाय जरामरणम्हा परिमुच्चिस्सामी' ति। सो विविच्चेव कामेहि ....पे०....पठमझानं उपसम्पज्ज विहरति । तस्साधिगतं होति रूपावचरं पठमं झानं, दिब्बो च विहारो, भावनामयं च पुञ्जकिरियवत्थु" ( ) ति।
१५. तस्मा यो चित्तसञत्तत्थाय सिवथिकदस्सनं गच्छति, सो घण्टिं पहरित्वा अशुभनिमित्त को उसके स्वभाव के अनुसार भली भाँति देखता है-वर्ण से भी, लिङ्ग से भी, आकार (संस्थान) से भी, दिशा से भी, रिक्त स्थान (=अवकाश) से, जोड़ (=सन्धि), छिद्र (=विहार). निचाई, ऊँचाई, चारों ओर से भी। तब वह उस निमित्त को भलीभाँति ग्रहण करता है। भली-भाँति मन में धारण करता है, सुव्यवस्थित करता है। वह उस निमित्त को भलीभाँति ग्रहण कर, भलीभाँति धारण कर, सुव्यवस्थित कर,स्मृति बनाये रखकर, विस्मरण से रहित होकर, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने से इस अन्तर्मुख हुए मन के साथ गतागत मार्ग का प्रत्यवेक्षण करते हुए अकेला, विना किसी को साथ लिये, जाता है। वह चंक्रमण करते समय भी उस अशुभनिमित्त के बारे में चिन्तन करते हुए ही चंक्रमण करता है। बैठते समय भी उस अशुभनिमित्त के बारे में चिन्तन-मनन करते हुए ही आसन पर बैठता
है।
(१) चारों ओर से निमित्त को ध्यानपूर्वक देखने का क्या प्रयोजन या क्या गुण ( माहात्य) है? चारों ओर से निमित्त को ध्यान से देखना असम्मोह (=मोह से रहित होने) के लिये है। उसका गुण असम्मोह है। (२) ग्यारह प्रकार से निमित्त ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है, क्या गुण है? ग्यारह प्रकार से निमित्त का ग्रहण उस अशुभ आलम्बन से चित्त को बाँधे रखने के लिये हैं। उसका गुण बाँधे रखना है। (३) गतागत मार्ग के प्रत्यवेक्षण का क्या प्रयोजन, क्या गुण है? गतागत मार्ग का प्रत्यवेक्षण कर्मस्थान के मार्ग (-विधि) के सम्यक् प्रतिपादन के लिये है। मार्ग का सम्यक्प्रतिपादन उसका गुण
वह भिक्षु उसमें गुण देखते हुए, उसे रत्न के समान मूल्यवान् समझते हुए उसके प्रति आदर और प्रेम से युक्त होकर, उस आलम्बन से चित्त को इस प्रकार बाँधता है-'अवश्य ही इस मार्ग से मैं जरामरण से मुक्त हो जाऊँगा'। वह कामों से रहित...पूर्ववत्.प्रथम ध्यान प्राप्त कर विहार करता है। वह रूपावचर प्रथम ध्यान, दिव्य विहार एवं भावनामय पुण्य क्रियावस्तु प्राप्त करता है।" १. द्र०-दी०नि०३.१०।