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६. असुभकम्मट्ठाननिद्देस
२४५ उग्गहेतब्बं । तेनस्स कम्मट्ठानं कथेन्तेन असुभनिमित्तत्थाय गमनविधानं, समन्ता निमित्तुपलक्खणं एकादसविधेन निमित्तग्गाहो, गतागतमग्गपच्चवेक्खणं ति एवं अप्पनाविधानपरियोसानं सब्बं कथेतब्बं । तेनापि सब्बं साधुकं उग्गहेत्वा पुब्बे वुत्तप्पकारं सेनासनं उपगन्त्वा उद्घमातकनिमित्तं परियेसन्तेन विहातब्बं ।
१२. एवं विहरन्तेन च 'असुकस्मि नाम गामद्वारे वा अटविमुखे वा पन्थे वा पब्बतपादे वा रुक्खमूले वा सुसाने वा उद्धमातकसरीरे निक्खित्तं' ति कथेन्तानं वचनं सुत्वा पि न तावदेव अतित्थेन पक्खन्दन्तेन विय गन्तब्बं ।
कस्मा? असुभं हि नामेतं वाळमिगाधिट्ठितं पि अमनुस्साधिट्ठितं पि होति। तत्रस्स जीवितन्तरायो पि सिया।गमनमग्गो वा पनेत्थ गामद्वारेन वा न्हानतित्थेन वा केदारकोटिया वा होति । तत्थ विसभागरूपं आपाथमागच्छति, तदेव वा सरीरं विसभागं होति। पुरिसस्स हि इत्थिसरीरं, इत्थिया च पुरिससरीरं विसभागं, तदेतं अधुनामतं सुभतो पि उपट्टाति, तेनस्स ब्रह्मचरियन्तरायो पि सिया। सचे पन "नयिदं मादिसस्स भारियं" ति अत्तानं तक्कयति, एवं तक्कयमानेन गन्तब्बं ।।
१३. गच्छन्तेन च सङ्घत्थरस्स वा अञ्जतरस्स वा अभिज्ञातस्स भिक्खुनो कथेत्वा गन्तब्बं । कस्मा? सचे हिस्स सुसाने अमनुस्ससीहब्यग्घादीनं रूपसद्दादिअनिट्ठारम्मणाभिउद्धमातक की भावनाविधि
११. पूर्वोक्त उद्धमातक शरीर में उद्धमातक निमित्त उत्पन्न कर, उद्धमातक' नामक ध्यान की भावना करने के अभिलाषी योगी को, पृथ्वीकसिण के प्रसङ्ग में आयी विधि के अनुसार ही, उक्त प्रकार के आचार्य के पास जाकर कर्मस्थान ग्रहण करना चाहिये । उसे कर्मस्थान बतलाने वाले इस आचार्य को १. अशुभनिमित्त के अवलोकन के हेतु जाने की विधि, २. चारों ओर से निमित्त को भलीभाँति देखना, ३. ग्यारह प्रकार से निमित्त का ग्रहण, ४. गतागत अर्थात् जाने और आने के मार्ग का प्रत्यवेक्षण-इस प्रकार अर्पणाविधि की समाप्ति तक सब कुछ बतला देना चाहिये । उस योगावचर को भी सब कुछ भलीभाँति सीखकर, पूर्वोक्त प्रकार के शयनासन में जाकर, उद्धमातक निमित्त को खोजते हुए विहार करना चाहिये।
१२. और इस प्रकार विहार करने वाले को-"अमुक ग्राम के द्वार पर, जङ्गल में, रास्ते में, पर्वत की तलहटी में; वृक्ष के नीचे या श्मशान में उद्धमातक शव पड़ा हुआ है"-इस प्रकार किसी को कहते हुए सुनकर ही, उस व्यक्ति की तरह जो कि बिना घाट वाली नदी में कूद पड़ता है, उसी समय चल नहीं देना चाहिये। क्यों? क्योंकि १ यह अशुभ हिंसक जन्तुओं के द्वारा भी और अमानवीय सत्ताओं (=अमनुष्यों भूतप्रेतों) द्वारा भी अधिष्ठित होता है वहाँ उसकी जान भी जा सकती है। २.या हो सकता है कि उस तक जाने का रास्ता ग्राम के द्वार, घाट या सींचे हुए खेत की सीमा से होकर जाता हो और वहाँ विपरीत (=विसभाग) रूप सामने पड़ जाँय । २. या वह शरीर (=शव) ही विपरीत हो। क्योंकि पुरुष के लिये स्त्री का शरीर और स्त्री के लिये पुरुष का शरीर विपरीत है। तब, हाल में ही मृत वह शरीर उस भिक्षु को शुभ (=आकर्षक, सुन्दर) भी प्रतीत हो सकता है, जिससे इसके ब्रह्मचर्य में बाधा पड़ सकती है। किन्तु यदि वह "यह मुझ जैसे के लिये कठिन नहीं है"-ऐसा स्वयं के विषय में सोचता है, तो ऐसा सोचने वाले को चले जाना चाहिये।
१३. हाँ, जाने वाले को सङ्घ के स्थविर से या अन्य किसी सुपरिचित भिक्षु से कहकर जाना चाहिये। किसलिये? क्योंकि (१) यदि श्मशान में अमनुष्यों, सिंह, व्याघ्र आदि रूप, शब्द आदि तथा