________________
२३८
विसुद्धिमग्ग भित्तिछिद्दे वा तालच्छिद्दे वा वातपानन्तरिकाय वा" ति वचनतो कताधिकारस्स ताव पुञवतो यं भित्तिछिद्दादीनं अअतरेन सुरियालोको वा चन्दालोको वा पविसित्वा भित्तियं वा भूमियं वा मण्डलं समुट्ठापेति, घनपण्णरुक्खसाखन्तरेन वा घनसाखामण्डपन्तरेन वा निक्खमित्वा भूमियमेव मण्डलं समुट्ठापेति, तं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति। इतरेना पि तदेव वृत्तप्पकारं ओभासमण्डलं "ओभासो,ओभासो" ति वा "आलोको, आलोको" ति वा भावेतब्बं । तथा असक्कोन्तेन घटे दीपं जालेत्वा घटमुखं पिदहित्वा घटे छिदं कत्वा भित्तिमुखं ठपेतब्बं । तेन छिद्देन दीपालोको निक्खमित्वा भित्तियं मण्डलं करोति, तं "आलोको आलोको" ति भावेतब्बं । इदं इतरेहि चिरट्ठितिकं होति। इध उग्गहनिमित्तं भित्तिया वा भूमियं वा उद्वितमण्डलसदिसमेव होति। पटिभागनिमित्तं घनविप्पसन्नं आलोकपुञ्जसदिसं। सेसं तादिसमेवा ति।
आलोककसिणं॥ परिच्छिन्नाकासकसिणकथा १४. परिछिनाकासकसिणे पि "आकासकसिणं उग्गण्हन्तो आकासस्मि निमित्तं गण्हति भित्तिछिद्दे वा ताळच्छिद्दे वा वातपानन्तरिकाय वा" ति वचनतो कताधिकारस्स ताव पुजवतो भित्तिछिद्दादीसु अञ्जतरं दिस्वा व निमित्तं उप्पज्जति । इतरेन सुच्छन्नमण्डपे वा चम्मकटसारकादीनं वा अञ्जतरस्मि विदत्थिचतुरङ्गलप्पमाण छिदं कत्वा तदेव वा भित्तिछिद्दादिभेदं छिदं "आकासो, आकासो"ति भावेतब्बं । इध उग्गहनिमित्तं सद्धिं भित्तिजिसमें ताली लगाकर ताला खोला जाता है (-ताल-छिद्र) या खिड़की में से आते हुए प्रकाश में निमित्त ग्रहण करता है"-इस वचन के अनुसार, पूर्वजन्म में अभ्यास कर चुके पुण्यवान् को, जो सूर्य या चन्द्र का प्रकाश झरोखे (गवाब) आदि में से किसी एक से प्रवेश कर दीवार या भूमि पर गोलाकार पड़ता है या सघन पत्तों वाले वृक्ष की शाखाओं के बीच से निकलकर या सघन शाखामण्डप के बीच से निकल कर भूमि पर गोलाकार पड़ता है, उसे देखकर निमित्त उत्पन्न होता है। दूसरों को भी उसी तरह बतलाये गये प्रकार से "अवभास, अवभास" या "आलोक, आलोक" इस प्रकार अवमासमण्डल की भावना करनी चाहिये। जो ऐसा न कर सके, उसे चाहिये कि सम्भवतः मिट्टी के घड़े में दीपक रखे। घड़े का मुख बन्द कर, घड़े में छेद कर दे और उस छेद का मुख दीवार की ओर करके रख दे। उस छेद से दीपक का प्रकाश निकल कर दीवार पर गोलाकार पड़ेगा। उसे देखते हुए "आलोक, आलोक" इस प्रकार भावना करनी चाहिये। यह घड़े वाला उपाय अन्यों की अपेक्षा चिरस्थायी होता है; क्योंकि सूर्य-चन्द्र का प्रकाश खिसकता रहता है और सदैव उपलब्ध भी नहीं होता । यहाँ उद्ग्रह-निमित्त दीवार पर या भूमि पर बने हुए प्रकाश के मण्डल (गोलाकार) के समान ही होता है; प्रतिभागनिमित्त सघन, तेज प्रकाश-पु. के समान । शेष पूर्वोक्त जैसा ही है।।
आलोककसिण का वर्णन समाप्त ।। परिच्छिन्नाकाशकसिण
१४. परिच्छिन्नाकाश (=परिमित खाली स्थान)-कसिण में भी आकाशकसिण का ग्रहण करने वाला झरोखे, ताल-छिद्र या खिड़की के आकाश में निमित्त ग्रहण करता है"-इस वचन के अनुसार पूर्वजन्म में अभ्यास कर चुके पुण्यवान् को दीवार में बने छिद्र (झरोखे) आदि में से किसी एक को देखकर ही निमित्त उत्पन्न हो जाता है। दूसरे साधक को अच्छी तरह से छाये हुए मण्डप, चमड़े, टाट आदि में से किसी एक में एक बालिश्त चार अङ्गुल प्रमाण का छेद बनाकर या उसी