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४. पथवीकसिणनिद्देस
२३१ दुतियज्झानं उप्पज्जति । तस्स वितकमत्तमेव पहानङ्गं । विचारादीनि चत्तारि समन्नागतानि। सेसं वुत्तप्पकारमेव।
एवमधिगते पन तस्मि पि वुत्तनयेनेव पञ्चहाकारेहि चिण्णवसिना हुत्वा पगुणदुतियज्झानतो वुट्ठाय "अयं समापत्ति आसन्नवितकपच्चत्थिका, विचारस्स ओळारिकत्ता अङ्गदुब्बला" ति च तत्थ दोसं दिस्वा ततियज्झानं सन्ततो मनसिकरित्वा दुतियज्झाने निकन्ति परियादाय ततियाधिगमाय योगो कातब्बो। अथस्स यदा दुतियज्झानतो वुट्ठाय सतस्स सम्पजानस्स झानङ्गानि पच्चवेक्खतो विचारमत्तं ओळारिकतो उपट्ठाति, पीतिआदीनि सन्ततो। तदास्स ओळारिकङ्गपहानाय सन्तङ्गपटिलाभाय च तदेव निमित्तं "पथवी, पथवी" ति पुनप्पुनं मनसिकरोतो वुत्तनयेनेव ततियज्झानं उपज्जति। तस्स विचारमत्तमेव पहानङ्ग, चतुकनयस्स दुतियज्झाने विय पीतिआदीनि तीणि समन्नागतङ्गानि। सेसं वुत्तप्पकारमेव ।
८६. इति यं चतुकनये दुतियं, तं द्विधा भिन्दित्वा पञ्चकनये दुतियं चेव ततियं च होति। यानि च तत्थ ततियचतुत्थानि, तानि च चतुत्थपञ्चमानि होन्ति। पठमं पठममेवा ति।
इति साधुजनपामोजत्थाय कते विसुद्धिमग्गे समाधिभावनाधिकारे पथवीकसिणनिद्देसो नाम
चतुत्थो परिच्छेदो॥
उसी निमित्त 'पृथ्वी, पृथ्वी' को बारम्बार मन में लाता है, तब उक्त विधि से ही द्वितीय ध्यान उत्पन्न होता है। वितर्कमात्र ही उसका प्रहाणाङ्ग है। जबकि चतुष्क नय में द्वितीय ध्यान के प्रहाणाङ्ग वितर्क और विचार दोनों ही हैं। शेष पूर्वोक्त विधि से ही है।
इस प्रकार उस द्वितीय ध्यान को प्राप्त कर लेने पर, उसमें कही गयी विधि के अनुसार पाँच प्रकार की विशेषताएँ प्राप्त कर लेने पर, अभ्यस्त द्वितीय ध्यान से उठकर "यह समापत्ति-वितर्क की समीपवर्तिनी है, विचार की स्थूलता के कारण दुर्बल अङ्गवाली है"-इस प्रकार उसमें दोष देखकर, तृतीय ध्यान की ओर शान्तिपूर्वक मन लगाकर, द्वितीय ध्यान की कामना छोड़कर, तृतीय की प्राप्ति के लिये उद्योग करना चाहिये। तब जिस समय द्वितीय ध्यान से उठ कर स्मृतिमान् सम्प्रजन्ययुक्त भिक्षु को ध्यानाङ्गों का प्रत्यवेक्षण करते समय केवल विचार स्थूल प्रतीत होता है और प्रीति आदि शान्त; तब स्थूल अङ्ग के प्रहाण एवं शान्त अङ्गों की प्राप्ति के लिये उसी निमित्त 'पृथ्वी, पृथ्वी' को बारम्बार मन में लाते हुए उक्त प्रकार से ही तृतीय ध्यान उत्पन्न होता है। उसका प्रहाणाङ्ग विचारमात्र ही है, चतुष्कनय के द्वितीय ध्यान के समान प्रीति आदि समन्वागत (=युक्त) अङ्ग होते हैं। शेष पूर्वोक्त प्रकार से ही है।
८६ इस प्रकार जो चतुष्कनय में द्वितीय है, उसे दो भागों में बाँट देने से, अर्थात् चतुष्कनय में जो द्वितीय ध्यान है-"अवितर्कविचारमात्र, अवितर्क-अविचार, उसे दो भागों में बाँट देने से, पञ्चकनय के द्वितीय और तृतीय ध्यान होते हैं। (किन्तु सूत्रान्तों में स्वरूपतः पञ्चकनय का ग्रहण नहीं किया गया है।) जो वहाँ चतुष्कनय में तृतीय और चतुर्थ ध्यान हैं, वे ही पञ्चकनय में चतुर्थ और पञ्चम ध्यान होते हैं।
साधुजनों के प्रमोद हेतु विरचित विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ के समाधिभावनाधिकार में पृथ्वीकसिणनिर्देश नामक
चतुर्थ परिच्छेद समात॥