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विसुद्धिमग्ग एकं पि "उपेक्षासतिपारिसुद्धिं" ति न वुत्तं । इध पन वितकादिपच्चनीकधम्मतेजाभिभवाभावा सभागाय च उपेक्खावेदनारत्तिया पटिलाभा अयं तत्रमज्झत्तुपेक्खा चन्दलेखा अति विय परिसुद्धा। तस्सा परिसुद्धत्ता परिसुद्धचन्दलेखाय पभा विय सहजाता पि सतिआदयो परिसुद्धा होन्ति परियोदाता । तस्मा इदमेव "उपेक्खासतिपारिसुद्धिं"ति वुत्तं ति वेदितब्बं ।
८४. चतुत्थं ति। गणनानुपुब्बता चतुत्थं । इदं चतुत्थं समापज्जती ति चतुत्थं । यं पन वुत्तं "एकङ्गविप्पहीनं दुवङ्गसमन्त्रागतं" ति, तत्थ सोमनस्सस्स पहानवसेन एकङ्गविप्पहीनता वेदितब्बा । तं च पन सोमनस्सं एकवीथियं पुरिमजवनेसु येव पहीयति। तेनस्सतं पहानङ्गं ति वुच्चति । उपेक्खावेदना चित्तस्सेकग्गता ति इमेसं पन द्विनं उप्पत्तिवसेन दुवङ्गसमन्नागतता वेदितब्बा। सेसं पठमझाने वुत्तनयमेव ||
एस ताव चतुकण्झाने नयो॥ पञ्चकज्झानकथा ८५. पञ्चकज्झानं पन निब्बत्तेन्तेन पगुणपठमज्झानतो वुट्ठाय "अयं समापत्ति आसन्ननीवरणपच्चत्थिका, वितकस्स ओळारिकत्ता अङ्गदुब्बला" ति च तत्थ दोसं दित्वा दुतियज्झानं सन्ततो मनसिकरित्वा पठमझाने निकन्तिं परियादाय दुतियाधिगमाय योगो कातब्बो। अथस्स यदा पठमज्झाना वुट्ठाय सतस्स सम्पजानस्स झानङ्गानि पच्चवेक्खतो वितकमत्तं ओळारिकतो उपट्ठाति, विचारादयो सन्ततो। तदास्स ओळारिकङ्गप्पहानाय सन्तङ्गपटिलाभाय च तदेव निमित्तं "पथवी, पथवी" ति पुनप्पुनं मनसिकरोतो वुत्तनयेनेव प्रथम ध्यान आदि में अपरिशुद्ध होती है। उसके अपरिशुद्ध होने से, दिन में अपरिशुद्ध चन्द्रलेखा के समान सहजात स्मृति आदि भी अपरिशुद्ध ही होती हैं। इसलिये उन ध्यानों में से एक को भी 'उपेक्षास्मृतिपरिशुद्धि वाला नहीं कहा गया है। किन्तु यहाँ चतुर्थ ध्यान में वितर्क आदि प्रतिपक्ष धर्मों के तेज से अभिभूत न होने से एवं सभाग उपेक्षावेदना रात्रि के लाभ से यह तत्रमध्यस्थ उपेक्षा-चन्द्रलेखा अत्यधिक परिशुद्ध होती है। उसके परिशुद्ध होने से परिशुद्ध चन्द्रलेखा की प्रभा के समान सहजात स्मृति आदि भी परिशुद्ध एवं स्पष्ट होती हैं। इसीलिये इसी ध्यान को 'उपेक्षा-स्मृति-परिशुद्धि वाला' कहा गया है-ऐसा जानना चाहिये।
.. ८४. चतुत्थं-(चतुर्थ)-गणनाक्रम में चतुर्थ । यह चौथी बार प्राप्त होता है, अतः चतुर्थ है। जो यह कहा गया है-एकङ्गविप्पहीनं दुवङ्गसमन्नागतं "एक अङ्ग से रहित होना जानना चाहिये। और वह सौमनस्य उसी विधि के प्रथम जवनों में ही प्रहीण होता है। इसलिये उस सौमनस्य को उसका प्रहाणाङ्ग कहा जाता है। उपेक्षा-वेदना, चित्त की एकाग्रता-इन दो की उत्पत्ति के रूप में दो अङ्गों से युक्त होना जानना चाहिये। शेष प्रथम ध्यान में उक्त विधि अनुसार ही है।।
यह (उपर्युक्त समस्त वर्णन) चार ध्यान मानने वाली विधि के अनुसार है।। पशक ध्यान
८५. पञ्चक ध्यान (=पाँच भेदों वाला ध्यान) उत्पन्न करने वाले को अभ्यस्त प्रथम ध्यान से उठकर, "यह समापत्ति समीप के नीवरणों की विरोधी है, वितर्क की स्थूलता के कारण दुर्बल अङ्ग वाली है" इस प्रकार उसमें दोष देखकर द्वितीय ध्यान की ओर शान्तिपूर्वक मन लगाकर, प्रथम ध्यान की कामना छोड़कर द्वितीय ध्यान की प्राप्ति के लिये उद्योग करना चाहिये। तब जिस समय प्रथम ध्यान से उठकर स्मृतिमान्, सम्प्रजन्ययुक्त भिक्षु ध्यान के अङ्गों का प्रत्यवेक्षण करता है, उस समय उसे केवल वितर्क स्थूल रूप में प्रतीत होता है और विचार आदि शान्त अङ्गों की प्राप्ति के लिये