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________________ २२४ विसुद्धिमग्ग अधिप्पायो। किं ति? उपेक्खको सतिमा सुखविहारी ति। तं ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरती ति एवमेत्थ योजना वेदितब्बा। ७३. कस्मा पन तं ते एवं पसंसन्ती ति? पसंसारहतो । अयं हि यस्मा अतिमधुरसुखे सुखपारमिप्पत्ते पि ततियज्झाने उपेक्खको,न तत्थ सुखाभिसङ्गेन आकड्डियति। यथा च पीति न उप्पज्जति, एवं उपट्ठितसतिताय सतिमा। यस्मा च अरियकन्तं अरियजनसेवितमेव च असङ्किलिटुं सुखं नाम कायेन पटिसंवेदेति, तस्मा पसंसारहो होति । इति पसंसारहतो नं अरिया ते एवं पसंसाहेतुभूते गुणे पकासेन्तो "उपेक्खको सतिमा सुखविहारी" ति एवं पसंसन्ती ति वेदितब्बं । ७४. ततियं ति। गणनानुपुब्बता ततियं, इदं ततियं समापज्जती ति ततियं । यं पन वुत्तं "एकङ्गविप्पहीनं दुवङ्गसमन्नागतं" ति, एत्थ पीतिया पहानवसेन एकङ्गविप्पहीनता वेदितब्बा। सा पनेसा दुतियज्झानस्स वितक्कविचारा विय अप्पनाक्खणे येव पहीयति। तेनस्स सा पहानङ्गं ति वुच्चति। सुखं चित्तेकग्गता ति इमेसं पन द्विन्नं उप्पत्तिवसेन दुवङ्गसमन्नागतता वेदितब्बा। तस्मा यं विभङ्गे-"झानं ति उपेक्खा सतिसम्पजअं सुखं चित्तस्सेकग्गता" (अभि०२-३१२) ति वुत्तं, तं सपरिक्खारं झानं दस्सेतुं परियायेन वुत्तं। ठपेत्वा पन उपेक्खासतिसम्पजानि निप्परियायेन उपनिज्झानलक्खणप्पत्तानं अङ्गानं वसेन दुवङ्गिकमेवेतं होति। यथाह-"कतमं तस्मि समये दुवङ्गिकं झानं होति? सुखं, चित्तस्सेकग्गता" (अभि० २-३१७) ति। सेसं पठमज्झाने वुत्तनयमेव॥ कहते हैं, प्रज्ञप्त करते हैं, प्रतिष्ठापित करते हैं, उद्घाटित करते है, प्रकाशित करते हैं, प्रशंसा करते हैंयह अभिप्राय है। ऐसा क्यों? क्योंकि "उपेक्षायुक्त, स्मृतिमान्, सुखविहारी उस तृतीय ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है"-यहाँ यह अर्थ-योजना समझनी चाहिये। ७३. किन्तु किसलिये वे आर्यजन उसकी इस प्रकार प्रशंसा करते हैं? प्रशंसा के योग्य होने से। क्योंकि यह (भिक्षु) अतिमधुर सुखरूप सुख की चरम सीमा प्राप्त तृतीय ध्यान में भी उपेक्षा से युक्त होता है, उसकी तरफ सुख की लालसा से आकृष्ट नहीं होता। जिस प्रकार प्रीति उत्पन्न न हो, उस प्रकार स्मृति को उपस्थित रखने से स्मृतिमान् है; क्योंकि आर्यजनों को प्रिय, आर्यजनों से सेवित, क्लेशरहित सुख का नाम-काय से अनुभव करता है, इसलिये प्रशंसा के योग्य होता है। इस प्रकार आर्यजन द्वारा प्रशंसा के हेतुभूत गुणों को प्रकाशित करते हुए प्रशंसा के योग्य इसकी "उपेक्षायुक्त, स्मृतिमान्, सुखविहारी"-इस प्रकार प्रशंसा करते हैं. ऐसा जानना चाहिये। ७४. ततियं (तृतीय)- गणना के क्रम में तृतीय । गणनाक्रम में इसे तृतीय स्थान प्राप्त होता है, अतः तृतीय है। जो यह कहा गया है-"एक अङ्ग से रहित, दो अङ्गों से युक्त", यहाँ प्रीति के प्रहाण के रूप में एक अङ्ग से रहित होना समझना चाहिये। प्रीति द्वितीय ध्यान के वितर्क विचार के समान अर्पणा के क्षण में ही नष्ट होती है। इसलिये वह इसकी ‘प्रहाणाङ्ग' कही जाती है। सुख और चित्त की एकाग्रता-इन दो अङ्गों की उत्पत्ति के रूप में 'दो अङ्गों से युक्त होना' जानना चाहिये। इसलिये जो विभा में-"ध्यान, उपेक्षा, स्मृति-सम्प्रजन्य सुख, चित्त की एकाग्रता"-ऐसा कहा गया है, वह ध्यान को उसके संसाधनों (=परिष्कारों) के साथ दिखाने के लिये आलङ्कारिक रूप में कहा गया है। किन्तु उपेक्षा, स्मृति और सम्प्रजन्य को छोड़कर, वास्तविक अर्थ में चिन्तन (=उपनिज्झान) लक्षण वाले अङ्गों के अनुसार यह तृतीय ध्यान दो अङ्गों वाला ही होता है। जैसा कि कहा गया है-"उस समय
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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