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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २२३ भूमियं विय पुरिसस्स, चित्तस्स गति सुखा होति, अब्यत्तं तत्थ सतिसम्पजञकिच्चं । ओळारिकङ्गप्पहानेन पन सुखुमत्ता इमस्स झानस्स पुरिसस्स खुरधारायं विय सतिसम्पजञकिच्चपरिग्गहिता एव चित्तस्स गति इच्छितब्बा ति इधेव वृत्तं । किञ्च भिय्यो, यथा धेनूपगो वच्छो धेनुतो अपनीतो अरक्खियमानो पुनदेव धेनुं उपगच्छति, एवमिदं ततियज्ज्ञानसुखं पीतितो अपनीतं तं सतिसम्पञ्ञरक्खेन अरक्खियमानं पुनदेव पीतिं उपगच्छेय्य, पीतिसम्पयुत्तमेव सिया । सुखे वा पि सत्ता सारज्जन्ति, इदं च अतिमधुरं सुखं, ततो परं सुखाभावा । सतिसम्पजञानुभावेन पनेत्थ सुखे असारज्जना होति, न अञ्ञथा ति इमं पि अत्थविसेसं दस्सेतुं इदं इधेव वुत्तं ति वेदितब्बं । ७१. इदानि सुखं च कायेन पटिसंवेदेती ति एत्थ किञ्चापि ततियज्झानसमङ्गिनो सुखपटिसंवेदनाभोगो नत्थि । एवं सन्ते पि यस्मा तस्स नामकायेन सम्पयुत्तं सुखं, यं वा तं नामकायसम्पयुत्तं सुखं, तंसमुट्ठानेनस्स यस्मा अतिपणीतेन रूपेन रूपकायो फुटो, यस्स फुटत्ता झाना वुद्वितो पि सुखं पटिसंवेदेय्य । तस्मा एतमत्थं दस्सेन्तो, सुखं च कायेन पटिसंवेदेती ति आइ । ७२. इदानि यं तं अरिया आचिक्खन्ति उपेक्खको सतिमा सुखविहारी ति । एत्थ यंझानहेतु यंज्ञानकारणा तं ततियज्झानसमङ्गिपुग्गलं बुद्धादयो अरिया आचिक्खन्ति देसेन्ति पञ्ञन्ति पठन्ति विवरन्ति विभजन्ति उत्तानीकरोन्ति पकासेन्ति, पसंसन्ती ति में स्थूलत्व होने से वहाँ चित्त की गति सरल होती है, जैसे भूमि पर पुरुष की । अतः उन ध्यानों में स्मृति और सम्प्रजन्य का कृत्य अस्पष्ट होता है। किन्तु स्थूल अङ्गों के प्रहाण के कारण इस तृतीय ध्यान के सूक्ष्म होने से छुरे की धार पर पुरुष की गति के समान चित्त की गति स्मृति - सम्प्रजन्य को ग्रहण करके ही होनी आवश्यक है, अतः यहीं कहा गया है। अधिक क्या कहें! जैसे दूध पीने वाला बछड़ा गाय से दूर कर दिये जाने पर भी यदि पकड़ कर न रखा जाय तो पुनः पुनः गाय के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार प्रीति से दूर कर दिया गया यह तृतीय ध्यान का सुख उस स्मृति - सम्प्रजन्य द्वारा रक्षित न किये जाने पर पुनः प्रीति के पास जा पहुँचेगा एवं प्रीति से ही सम्प्रयुक्त हो जायगा। अथवा, 'प्राणी (सत्त्व) सुख में ही राग रखते हैं और यह अतिमधुर सुख है; क्योंकि इससे उत्कृष्ट कोई अन्य सुख नहीं है। किन्तु स्मृति - सम्प्रजन्य के प्रभाव ( = आनुभाव) के कारण ही इस सुख में राग नहीं होता, अन्य किसी कारण से नहीं। - इस विशेष अर्थ को दरसाने के लिये भी इसे यहीं कहा गया है - ऐसा समझना चाहिये । . ७१ . अब ' सुखं च कायेन पटिसंवेदेति" (और काय से सुख का अनुभव करता है' ) - यहाँ यद्यपि तृतीय ध्यान को वस्तुतः प्राप्त करने वाले सुख की संवेदना नहीं होती; तथापि क्योंकि सुख उसके नाम- काय (=वेदना, संज्ञा, संस्कार) से युक्त है अथवा जो नाम - काय से सम्प्रयुक्त सुखं है, उसके समुत्थान से क्योंकि अति उत्कृष्ट रूप से रूपकाय परिपूर्ण होता है, जिसके परिपूर्ण होने पर ध्यान से उठने पर भी सुख का अनुभव करता है, अतः यह अर्थ दरसाने के लिये " और काय से सुख का अनुभव करता है"- ऐसा कहा गया है। ७२. अब "यं तं अरिया आचिक्खन्ति उपेक्खको सतिमा सुखविहारी" (जिसके कारण उसके विषय में आर्य कहते हैं कि वह उपेक्षायुक्त, स्मृतिमान्, सुखविहारी है) - जिस ध्यान के हेतु से, जिस ध्यान के कारण से, उस तृतीय ध्यान को प्राप्त पुद्गल का बुद्ध आदि आर्यगण उल्लेख करते हैं,
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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