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विसुद्धिमग्ग खणे विजुप्पादसदिसा होति। ओक्कन्तिका पीति समुद्दतीरं वीचि विय कायं ओकमित्वा ओक्कमित्वा भिज्जति। उब्बेगा पीति बलवती होति, कायं उद्धग्गं कत्वा आकासे लङ्घापनप्पमाणप्पत्ता।
तथा हि पुण्णवल्लिंकवासी महातिस्सत्थेरो पुण्णमदिवसे सायं चेतियङ्गणं गन्त्वा चन्दालोकं दिस्वा महाचेतियाभिमुखो हुत्वा "इमाय वत वेलाय चतस्सो परिसा महाचेतियं वन्दन्ती" ति पकतिया दिट्ठारम्मणवसेन बुद्धारम्मणं उब्बेगापीतिं उप्पादेत्वा सुधातले पहटचित्रगेण्डुको विय आकासे उप्पतित्वा महाचेतियङ्गणे येव पतिट्ठासि।
तथा गिरिकण्डकविहारस्स उपनिस्सये वत्तकालकगामे एका कुलधीता पि बलवबुद्धारम्मणाय उब्बेगापीतिया आकासे लङ्ग्रेसि।
३०. तस्सा किर मातापितरो सायं धम्मस्सवनत्थाय विहारं गच्छन्ता "अम्म, त्वं गरुभारा अकाले विचरितुं न सक्कोसि, मयं तुम्हं पत्तिं कत्वा धम्म सोस्सामा" ति अगमंसु। सा गन्तुकामा पि तेसं वचनं पटिबाहितुं असक्कोन्ती घरे ओहायित्वा घराजिरे ठत्वा चन्दालोकेन गिरिकण्डके आकासचेतियङ्गणं ओलोकेन्ता चेतियस्स दीपपूजं अद्दस, चतस्सो च परिसा मालागन्धादीहि चेतियपूजं कत्वा पदक्खिणं करोन्तियो भिक्खुसङ्घस्स च गणसज्झायसदं अस्सोसि। यथस्सा "धा वतिमे ये विहारं गन्त्वा एवरूपे चेतियङ्गणे अनुसञ्चरितुं, एवरूपं च मधुरधम्मकथं सोतुं लभन्ती" ति मुत्तारासिसदिसं चेतियं पस्सन्तिया एव
वह प्रीति पाँच प्रकार की होती है-१. क्षुद्रिका, २. क्षणिका, ३. अवक्रान्तिका, ४. उद्वेगा एवं ५. स्फुरणा। - इनमें, क्षुदिका प्रीति शरीर में केवल लोमहर्षण (=रोमांच) कर सकती है। क्षणिका प्रीति क्षण-क्षण पर विद्युत्पाद के समान होती है। अवक्रान्तिका प्रीति समुद्र तट की तरङ्ग के समान शरीर में फैल-फैलकर समाप्त हो जाती है। उद्वेगा प्रीति सबल होती है। यह शरीर को ऊपर की ओर आकाश में उछालती हुई-सी प्रतीत होती है।
वैसे ही (जैसे कि) पुण्णवमिक निवासी महातिष्य स्थविर ने पूर्णिमा के दिन सायंकाल चैत्य के आँगन में जाकर चन्द्रमा के प्रकाश को देख महाचैत्य की ओर मुख करके-"अहा! इस समय तो चारों परिषदें (भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिका) महाचैत्य की वन्दना कर रही हैं"- ऐसा सोचकर स्वाभाविक रूप से दीख रहे आलम्बन द्वारा बुद्ध को आलम्बन बनाकर उस में उद्वेगा प्रीति उत्पन्न की। एवं प्लास्टर की गयी (चिकनी) सतह पर चित्रित गेंद के समान स्थविर आकाश में उड़कर सीधे महाचैत्य के आँगन में ही जाकर खड़े हुए।
३० वैसे ही, गिरिकण्डक महाविहार के पास वत्तकालक ग्राम में एक कुलपुत्री भी बुद्ध को आलम्बन बनाकर सबल उद्वेगा प्रीति (उत्पन्न करने) से उड़कर आकाश में चली गयी थी।
उसके माता-पिता ने सायङ्काल धर्मश्रवण के लिये विहार जाते समय "पुत्रि! तुम गर्भिणी हो, यो कुसमय में चलना-फिरना तुम्हारे लिये सम्भव नहीं है, (अतः तुम यहीं रहो), हम तुम्हारे प्रति पुण्यदान का सङ्कल्प कर धर्म-श्रवण करेंगे"-ऐसा कहकर प्रस्थान किया। वह भी जाना चाहती थी, परन्तु उन पूज्यों की बात टाल नहीं सकी। अतः उसने घर में ही रहकर घर के आँगन में खड़ी होकर चाँदनी मे गिरिकण्डक के आकाशचैत्य (=पर्वत पर बने हुए चैत्य) के आँगन की ओर देखते हुए चैत्य की दीप-पूजा, आरती को देखा, और जब चारों परिषदे माला-गन्ध आदि से चैत्य की पूजा कर प्रदक्षिणा कर रही थी, तब भिक्षुसद्ध के सामूहिक धर्मवाचन को सुना। तब उसने-"अहा! ये धन्य है