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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस १७७ (४) पुग्गलो पि अतिरच्छानकथिको सीलादिगुणसम्पन्नो, यं निस्साय असमाहितं वा चित्तं समाधियति, समाहितं वा चित्तं थिरतरं होति, एवरूपो सप्पायो। कायदळहीबहुलो पन तिरच्छानकथिको असप्पायो।सो हितं कद्दमोदकमिव अच्छं उदकं मलिनमेव करोति, तादिसंच आगम्म कोटपब्बतवासिदहरस्सेव समापत्ति पि नस्सति, पगेव निमित्तं। (५) भोजनं पन कस्सचि मधुरं, कस्सचि अम्बिलं सप्पायं होति। (६) उतु पि कस्सचि सीतो उण्हो सप्पायो हति। तस्मा यं भोजनं वा उतुं वा सेवन्तस्स फासु होति, असमाहितं वा चित्तं समाधियति, समाहितं वा चित्तं थिरतरं होति, तं भोजनं सो च उतु सप्पायो। इतरं भोजनं इतरो च उतु असप्पायो। (७) इरियापथेसु पि कस्सचि चङ्कमो सप्पायो होति, कस्सचिसयनहाननिसज्जानं अञ्जतरो। तस्मा तं आवासं विय तीणि दिवसानि उपपरिक्खित्वा यस्मिं इरियापथे असमाहितं वा चित्तं समाधियति, समाहितं वा चित्तं थिरतरं होति, सो सप्पायो । इतरो असप्पायो ति वेदितब्बो। इति इमं सत्तविधं असप्पायं वजेत्वा सप्पायं सेवितब्बं । एवं पटिपन्नस्स हि निमित्तासेवनबहुलस्स नचिरेनेव कालेन होति कस्सचि अप्पना। दसविधं अप्पनाकोसल्लं १७. यस्स पन एवं पिपटिपज्जतो न होति, तेन दसविधं अप्पनाकोसल्लं सम्पादतब्बं । (द्र०म० नि० १,१४५:३, ११३ आदि) पर आधृत वार्तालाप उपयुक्त है, किन्तु उसे भी सीमा में ही होना चाहिये। . (४) पुद्गल भी व्यर्थ की बातचीत न करने वाला, शील आदि गुणों से सम्पन्न, जिसके चलते असमाहित चित्त समाहित होता हो या समाहित चित्त और भी स्थिर होता हो--ऐसा उपयुक्त है। शरीर के ही पोषण में लगा रहने वाला और व्यर्थ की बकवास करने वाला अनुपयुक्त है; क्योंकि वह स्वच्छ जल को कीचड़ मिले जल के समान, साधक को दूषित ही करता है। उसके सम्पर्क से कोटपर्वत निवासी तरुण के समान समापत्ति भी नष्ट हो जाती है, फिर निमित्त का तो कहना ही क्या! (५) भोजन किसी के लिये मधुर, किसी के लिये खट्टा उपयुक्त होता है। (६) ऋतु भी किसी के लिये शीतल तो किसी के लिये उष्ण उपयुक्त होती है। इसलिये जिस भोजन या ऋतु का सेवन करने पर सुख मिले, असमाहित चित्त समाहित हो या समाहित चित्त और भी स्थिर हो, वही भोजन और ऋतु उपयुक्त है। इससे भिन्न भोजन एवं ऋतु अनुपयुक्त है। (७) ईर्यापथ में भी किसी को चंक्रमण उपयुक्त होता है तो किसी को सोने, खड़े होने, बैठने में से कोई एक । इसलिये आवास के ही समान, तीन दिनों तक उसकी परीक्षा करने के पश्चात्, जिस ईर्यापथ में असमाहित चित्त समाहित होता हो या समाहित चित्त और भी अधिक स्थिर होता हो, वही उपयुक्त है। इससे भिन्न को अनुपयुक्त जानना चाहिये। इस प्रकार इस सप्तविध अनुपयुक्त (असप्पाय) को छोड़कर उपयुक्त का सेवन करना चाहिये। इस प्रकार प्रतिपन्न एवं निमित्त का बहुलता से सेवन करने वाले किसी किसी साधक को शीघ्र ही अर्पणा की प्राप्ति होती है। दस प्रकार का अर्पणाकौशल १७.जिसे इस प्रकार प्रतिपन्न होने पर भी अर्पणा प्राप्त न होती हो, उसे दस प्रकार
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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