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४. पथवीकसिणनिद्देस
१७५ उप्पन्नकालतो च पनस्स पट्ठाय नीवरणानि विक्खम्भितानेव होन्ति, किलेसा सन्निसिना व, उपचारसमाधिना चित्तं समाहितमेवा ति।
१४. दुविधो हि समाधि-उपचारसमाधि च, अप्पनासमाधि च। द्वीहाकारेहि चित्तं समाधियति-उपचारभूमियं वा, पटिलाभभूमियं वा। तत्थ उपचारभूमियं नीवरणप्पहानेन चित्तं समाहित होति, पटिलाभभूमियं अङ्गपातुभावेन।।
१५. द्विन्नं पन समाधीनं इदं नानाकरणं-उपचारे अङ्गानि न थामजातानि होन्ति। अङ्गानं अथामजातत्ता यथा नाम दहरो कुमारको उक्खिपित्वा ठपियमानो पुनप्पुनं भूमियं पतति; एमेव उपचारे उप्पन्ने चित्तं कालेन निमित्तं आरम्मणं करोति, कालेन भवङ्गं ओतरति। अप्पनायं पन अङ्गानि थामजातानि होन्ति। तेसं थामजातत्ता यथा नाम बलवा पुरिसो आसना वुट्ठाय दिवसं पि तिट्टेय्य, एवमेव अप्पनासमाधिम्हि उप्पन्ने चित्तं सकिं भवङ्गवारं छिन्दित्वा केवलं पि दिवसं तिट्ठति । कुसलजवनपटिपाटिवसेनेव पवत्तती ति।
तत्र यदेतं उपचारसमाधिना सद्धिं पटिभागनिमित्तं उप्पन्नं, तस्स उप्पादनं नाम अतिदुक्करं । तस्मा सचे तेनेव पल्लङ्केन तं निमित्तं वड्डत्वा अप्पनं अधिगन्तुं सक्कोति, सुन्दरं। नो चे सक्कोति, अथानेन तं निमित्तं अप्पमत्तेन चक्कवत्तिगब्भो विय रक्खितब्बं । एवं हि
. निमित्तं रक्खतो लद्धपरिहानि न विज्जति।
__ आरक्खम्हि असन्तम्हि लद्धं लद्धं विनस्सति ॥ योग्य, तीन लक्षणो (अनित्य, दुःख, अनात्म) से युक्त हो। किन्तु वह ऐसा नहीं होता। केवल समाधि के लाभी को ही प्रतीत आकारमात्र ज्ञात होता है। इसके उत्पन्न होने के समय से ही उस (भिक्षु) के नीवरण अवरुद्ध ही होते हैं, क्लेश भी दबे हुए ही रहते हैं एवं चित्त उपचारसमाधि से समाहित ही हुआ करता है। समाधि के प्रकार (=भेद)
१४. समाधि द्विविध होती है- १.उपचारसमाधि एवं २. अर्पणासमाधि। दो प्रकार से चित्त समाहित होता है-उपचारभूमि में ( उपचार की अवस्था में) या प्रतिलाभ (ध्यान-प्राप्ति) की भूमि में। इनमें, उपचार-भूमि में नीवरणप्रहाण से चित्त समाहित होता है और प्रतिलाभ-भूमि में ध्यान अङ्गों के प्रकट होने से।
१५. दोनों समाधियों में यह अन्तर है-उपचारावस्था में अङ्गभावना बल द्वारा सबल अर्थात् स्थिर नहीं होते। अङ्गों के सबल न होने से-जैसे कि कोई छोटा बच्चा उठकर खड़ा होने पर भी बार बार भूमि पर गिर पड़ता है, ऐसे ही उपचार के उत्पन्न होने पर चित्त कभी निमित्त का आलम्बन करता है तो कभी भवन में उतर जाता है। किन्तु अर्पणा में अङ्ग सबल होते हैं। उनकी सबलता से-जैसे कोई बलवान् पुरुष आसन से उठकर पूरे दिन भर खड़ा रह सकता है, वैसे ही अर्पणासमाधि उत्पन्न होने पर चित्त एक बार भवन के प्रवाह को रोककर पूरी रात व पूरे दिन भी बना रहता है। वह कुशल जवनचित्त की पद्धति के अनुसार ही प्रवर्तित होता है।
यह जो उपचार-समाधि के साथ प्रतिभाग (अनुकूल) निमित्त उत्पन्न होता है, उसका उत्पन्न होना बहुत कठिन है। इसलिये यदि उसी पर्यङ्क (आसन) से उस निमित्त का वर्धन करते हुए अर्पणा को पा सके तो बहुत अच्छा हो । यदि ऐसा न कर पावे तो उसे उस निमित्त की अप्रमाद के साथ चक्रवर्ती के गर्भ के समान रक्षा करनी चाहिये । क्योंकि इस प्रकार
प्राप्त निमित्त की रक्षा करते हुए हानि नहीं होती; किन्तु रक्षा न करने पर हर बार प्राप्त किया हुआ निमित्त विनष्ट हो जाता है।।