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________________ विसुद्धिमग्ग (घ) चीवर, पिण्डपात, शयनासन तथा रोग के लिये उपयोगी ओषधियाँ-इन चार प्रत्ययों का, प्रज्ञापूर्वक ठीक-ठीक जानकर सेवन करना ही प्रत्ययसनिश्रितशील कहलाता है। __ आचार्य कहते हैं-जैसे टिटिहरी पक्षी अपने अण्डे की, चमरी गाय अपनी पूंछ की, माता अपने पुत्र की, काणा व्यक्ति अपनी आँख की, प्राणों की तरह रक्षा करता है; उसी तरह योगाभ्यासी व्यक्ति को अपने उक्त चतुर्विध शील के प्रति प्रेम, गौरव तथा एकनिष्ठा रखनी चाहिये। प्रातिमोक्षसंवरशील को श्रद्धा से पूर्ण करना चाहिये। इन्द्रियसंवरशील को स्मृति से पूर्ण करना चाहिये; क्योंकि स्मृति से संरक्षित इन्द्रियाँ लोभ आदि से आक्रान्त नहीं होती। इसी प्रकार आजीवपारिशुद्धिशील को वीर्य से तथा प्रत्ययसनिश्रित शील को प्रज्ञा से पूर्ण किया जाता है। पाक-गणना से शील पाँच प्रकार का होता है-१. पर्यन्तपारिशुद्धि शील, २. अपर्यन्तपारिशुद्धि शील, ३. परिपूर्णपारिशुद्धि शील, ४. अपरामृष्ट पारिशुद्धि शील, तथा ५. प्रतिप्रश्रब्धिपारिशुद्धिशील। इन पांचों का विस्तार आगे ग्रन्थ से समझ लेना चाहिये। ६. अब छठा प्रश्न रह जाता है-शील का मल क्या है? शील का खण्डित होना ही उस . का मल है। सात प्रकार के मैथुनधर्म के संयोग से शील खण्डित होता है। अतः शील-संरक्षण के लिये साधक को सात प्रकार के मैथुन धर्मों से सतत बचते रहना चाहिये। दर्शन स्पर्शन, केलि आदि सात प्रकार के मैथुनधर्मों का विवरण प्रसङ्गवश अंगुत्तरनिकाय (तृतीय भाग १९४ पृ०) में दिया गया है। -- ७. सातवें प्रश्न के उत्तर में शील का अखण्ड रहना ही उसकी विशुद्धि है। यह विशुद्धि शिक्षापों के समादान से, प्रायश्चित्त से, सप्तविध मैथुनों से सर्वथा दूर रहने से, क्रोध, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों के अनुत्पाद से तथा अल्पेच्छता, सन्तोष आदि गुणों के उत्पाद से साधक को संगृहीत करनी चाहिये। २.धुताङ्गनिर्देश भगवान् ने, जिन जिज्ञासुओं द्वारा लाभ-सत्कार आदि का परित्याग कर दिया गया है उन अनुलोम मार्ग को पूर्ण करना चाहने वालों के लिये, इन १३ धुताङ्गों का उपदेश किया है। ये सभी धुतान शील-समादान के लिये अत्यावश्यक हैं। क्रमशः वे १३ धुताङ्ग ये हैं १. पंसुकूलिका (पांशुकूलिकाङ्ग), २. तेचीवरिकङ्ग (चीवरिकाङ्ग), ३. पिण्डपातिकङ्ग (पिण्डपातिकाङ्ग), ४. सपदानचारिकङ्ग (सापदानचारिकाङ्ग), ५. एकासनिकङ्ग (ऐकासनिकाङ्ग), ६. पत्तपिण्डिकङ्ग (पात्रपिण्डिकाङ्ग), ७. खलुपच्छाभत्तिका (खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग), ८. आरअिकङ्ग (आरण्यकान), ९. रुक्खमूलिकङ्ग (वृक्षमूलिकाङ्ग), १०. अब्भोकासिकङ्ग (अभ्यवकाशिकाङ्ग), ११. सोसनिकङ्ग (श्माशानिकाङ्ग), १२. यथासन्थतिकङ्ग (यथासंस्तरिकाङ्ग) एवं १३. नेसज्जिकङ्ग (नैषधकाङ्ग)। ये सभी अन, ग्रहण करने से क्लेशनाशक होने के कारण, धुत (परिशुद्ध) भिक्षु के अन्न कहलाते हैं। या क्लेशों को धुन डालने के कारण धुत नामक ज्ञानाङ्ग कहलाते हैं। ___ इन सभी को भगवान् से ग्रहण करना चाहिये। भगवान् की अनुपस्थिति में महाश्रावक से, महाश्रावक के न होने पर, क्षीणास्रव, अनागामी, सकृदागामी, स्रोतआपन से, उनके भी न होने पर त्रिपिटकघर, द्विपिटकधर, एकनिकायधर या अट्ठकथाचार्य से ग्रहण करना चाहिये। ये
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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