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विसुद्धिमग्ग पिस्स सेय्या वा निसज्जा वा वट्टति। आरम्मणं नीलादीसु वण्णकसिणेसु यं किञ्चि सुपरिसुद्धवण्णं ति। इदं दोसचरितस्स सप्पायं। (२)
मोहचरितस्स सेनासनं दिसामुखं असम्बाधं वट्टति, यत्थ निसिन्नस्स विवटा दिसा खायन्ति, इरियापथेसु चङ्कमो वट्टति। आरम्मणं पनस्स परित्तं सुप्पमत्तं सरावमत्तं वा खुद्दकं न वट्टति। सम्बाधस्मि हि ओकासे चित्तं भिय्यो सम्मोहं आपज्जति, तस्मा विपुलं महाकसिणं वट्टति। सेसं दोसचरितस्स वुत्तसदिसमेवा ति। इदं मोहचरितस्स सप्पायं। (३)
सद्धाचरितस्स सब्ब पि दोसचरितम्हि वुत्तविधानं सप्पायं। आरम्मणेसु चस्स अनुस्सतिट्ठानं पि वट्टति। (४)
बुद्धिचरितस्स सेनासनादीसु इदं नाम असप्पायं ति नत्थि। (५)
वितक्कचरितस्स सेनासनं विवटं दिसामुखं, यत्थ निसिन्नस्स आरामवनपोक्खरणीरामणेय्यकानि गामनिगमजनपदपटिपाटियो, नीलोभासा च पब्बता पायन्ति, तं न वट्टति। तं हि वितकविधावनस्सेव पच्चयो होति। तस्मा गम्भीरे दरीमुखे वनपटिच्छन्ने हत्थिकुच्छिपब्भारमहिन्दगुहासदिसे सेनासने वसितब्बं । आरम्मणं पिस्स विपुल्लं न वट्टति। तादिसं हि वितकवसेन सन्धावनस्स पच्चयो होति । परित्तं पन करने वाले हो । यवागू-भात (आदि) खाद्य भी देखने में अच्छे सुगन्धित, सुस्वादु, पौष्टिक, रुचिकर, सभी प्रकार से शुभ और मन भर कर खाने योग्य (=पर्याप्त मात्रा में) होना उसके लिये विहित है।
(ज) आलम्बन नीलादि वर्ण-कसिणों में से कोई परिशुद्ध वर्ण होना चाहिये। यह सब द्वेषचरित के अनुकूल है। (२)
मोहचरित का शयनासन-ऐसा होना चाहिये जो खुला हुआ हो, जहाँ बैठकर चारों दिशाओं में देखा जा सके। ईर्यापथों में चंक्रमण विहित है। इसका आलम्बन छोटा नहीं होना चाहिये, अर्थात् जैसे कि परिमित, सूप मात्र या शराव (=सकोरा) मात्र अर्थात् इस प्रकार के लघु परिमाण का पृथ्वीकसिण; क्योंकि परिमित स्थान में चित्त और भी अधिक सम्मूढ हो जाता है, इसलिये विशाल महाकसिण विहित है। शेष द्वेषचरित के लिये कहे गये के समान ही है। यह सब मोहचरित के लिये अनुकूल है। (३)
अद्धाचरित के लिये द्वेषचरित के विषय में कथित विधान अनुकूल है। आलम्बनों में इसके लिये, पर्वोक्त के अतिरिक्त, बद्धानस्मृति आदि छह कर्मस्थान भी विहित है। (४)
बुद्धिचरित के लिये तो शयनासन आदि के विषय में ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनुकूल न हो। (५)
वितर्कचरित का शयनासन ऐसा नही होना चाहिये जो खुला हुआ, दिशाओं की ओर अभिमुख हो और जहाँ बैठकर बाग-बगीचे, वन, तालाब आदि सुरम्य स्थान, ग्राम, निगम, जनपद ठीक से दिखलायी पड़ते हो और नीलाभ पर्वत दिखलायी पड़ते हों; क्योंकि वह सब तो वितर्क के इधर-उधर दौड़ने (=कल्पना की उड़ान) का ही कारण होगा! इस लिये उसे गहरी गुफा के द्वार पर, वन से घिरे हुए, हस्तिकुक्षिपब्भार (=लका में एक पर्वत-गुफा) और महेन्द्रगुफा (=अनुराधपुर में आज भी वर्तमान और महेन्द्र स्थविर का शयनासन रह चुकी एक गुफा) के समान शयनासन में रहना चाहिये। इसके लिये आलम्बन भी विपुल (=विस्तृत) नहीं होना चाहिये। उस प्रकार का आलम्बन तो वितर्क के उत्पन्न होने से मन के इधर-उधर दौड़ने का ही कारण होता है। अतः इसके लिये