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विसुद्धिमग दुप्परिहारानि। भिक्खुनिया हि दुतियिकं विना वसितुं न वट्टति। एवरूपे च ठाने समानच्छन्दा दुतियिका दुल्लभा। सचे पि लभेय्य संसट्ठविहारतो न मुच्चेय्य। एवं सति यस्सत्थाय धुतङ्गं सेवेय्य, स्वेवस्सा अत्थो न सम्पज्जेय्य। एवं परिभुञ्जितुं असकुणेय्यताय पञ्च हापेत्वा भिक्खुनीनं अद्वैव होन्ती ति वेदितब्बानि।
यघावुत्तेसु पन ठपेत्वा तेचीवरिकङ्गे सेसानि द्वादस सामणेरानं, सत्त सिक्खमानसामणेरीने वेदितब्बानि। उपासकउपासिकानं पन एकासनिकङ्गं, पत्तपिण्डिकङ्गं ति इमानि द्वे पतिरूपानि चेव सक्का च परिभुञ्जितुं ति द्वे धुतङ्गानी ति एवं व्यासतो द्वेचत्तालीस होन्ती ति॥
___ अयं समास-व्यासतो वण्णना॥ एत्तावता च "सीले पतिट्ठाय नरो सपओ" ति इमस्सा गाथाय सीलसमाधिपञामुखेन देसिते विसुद्धिमग्गे येहि अप्पिच्छतासन्तुट्ठितादीहि गुणेहि वुत्तप्पकारस्स सीलस्स वोदानं होति, तेसं सम्पादनत्थं समादातब्बधुतङ्गकथा भासिता होति॥
इति साधुजनपामोजत्थाय कते विसुद्धिमग्गे धुतङ्गनिदेसो नाम दुतियो परिच्छेदो॥
होती है। यदि प्राप्त भी हो जाय तो संसर्ग-विहार से मुक्ति नहीं मिल सकती। फिर धुताङ्ग का पालन कैसे होगा! ऐसा होने पर, जिस उद्देश्य से धुताङ्ग का पालन करना है, उस उद्देश्य की पूर्ति ही नहीं हो सकेगी! यों, पालन असम्भव होने से भिक्षुणियों के लिये पाँच (धुताङ्गों) को कम करके, आठ ही धुताङ्ग होते हैं-ऐसा जानना चाहिये।
पूर्वोक्त (तेरह) में से त्रैचीवरिकाङ्ग को छोड़कर शेष बारह श्रमणों के लिये, सात शिक्षमाणा और श्रामणेरियों के लिये समझना चाहिये । ऐकासनिकाङ्ग एवं पात्रपिण्डिकाङ्ग उपासक-उपासिकाओं के अनुरूप है एवं वे उनके पालन में समर्थ भी हैं। इसलिये उनके लिये दो धुताङ्ग ही कहे गये हैं। इस प्रकार विस्तार से (ये सब) बयालीस होते हैं।
यह संक्षेप एवं विस्तार से धुताङ्गों का वर्णन हुआ।। यहाँ तक, "सीले पतिद्वाय नरो सपओ" इस गाथा के अनुसार, शील, समाधि और प्रज्ञा के अनुसार उपदिष्ट विशुद्धिमार्ग में उक्त प्रकार के शील की जिन अल्पेच्छता, सन्तोष आदि गुणों से शुद्धि होती है, उन (गुणों) की पूर्ति के लिये ग्रहण करने योग्य धुताङ्गों का परिचय करा दिया गया है।।
साधुजनों के प्रमोद हेतु रचित इस विशुद्धिमार्ग (ग्रन्थ ) में
धतामनिर्देश नामक द्वितीय परिच्छेद समाप्त।
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