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विसुद्धिमग्ग कामसुखानुयोगं, अमोहेन धुतङ्गेसु अतिसल्लेखमुखेन पवत्तं अत्तकिलमथानुयोगं धुनाति । तस्मा इमे धम्मा 'धुतधम्मा' ति वेदितब्बा।
७७. धुतङ्गानि वेदितब्बानी ति। तेरस धुतङ्गानि वेदितब्बानि-पंसुकूलिकङ्गं ....पे०.... नेसज्जिकङ्गं ति। तानि अत्थतो लक्खणादीहि च वुत्तानेव।
७८. कस्स धुतङ्गसेवना सप्पाया ति? रागचरितस्स चेव मोहचरितस्स च। कस्मा? धुतङ्गसेवने हि दुक्खापटिपदा चेव सल्लेखविहारो च। दुक्खापटिपदं च निस्साय रागो वूपसम्मति। सल्लेखं निस्साय अप्पमत्तस्स मोहो पहोयति । आरञिकङ्गरुक्खमूलिकङ्गपटिसेवना वा एत्थ दोसचरितस्सापि सप्पाया। तत्थ हिस्स असङ्घट्टियमानस्स विहरतो दोसो पि वूपसम्मती ति॥
अयं धुतादीनं विभागतो वण्णना॥ ७९. समासव्यासतो ति । इमानि पन धुतङ्गानि समासतो तीणि सीसङ्गानि, पञ्च असम्भिन्नगानी ति अटेव होन्ति । तत्थ सपदानचारिकङ्गं, एकासनिकङ्गं, अब्भोकासिकङ्गं ति इमानि तीणि सीसङ्गानि । सपदानचारिकङ्गं हि रक्खन्तो पिण्डपातिकङ्गं पि रक्खिस्सति । एकासनिकङ्गं च रक्खतो पत्तपिण्डिकङ्गखलुपच्छाभत्तिकङ्गानि पि सुरक्खणीयानि भविस्सन्ति । अब्भोकासिकङ्गं रक्खन्तस्स किं अत्थि रुक्खमूलिकणयथासन्थतिकङ्गेसु रक्खितब्बं नाम! इति इमानि तीणि सीसङ्गानि; आरञिकङ्ग, पंसुकूलिकङ्गं, तेचीवरिकङ्गं, नेसज्जिकङ्गं, सोसानिकङ्गति इमानि पञ्च असम्भिन्नङ्गानि चा ति अटेव होन्ति। है, धुनता है; अमोह के द्वारा धुताङ्गों में, अति उपेक्षा से प्रवृत ‘स्वयं को कष्ट देते रहने की प्रवृत्ति' (अत्तकिलमथानुयोग) को धुनता है। इसलिये ये धर्म 'धुत धर्म' समझे जाने चाहिये।
७७. धुताङ्गों को भी जानना चाहिये- तेरह धुताङ्गों को जानना चाहिये। जैसे--१. पांशुकूलिकाङ्ग.... १३ नैषद्यकाङ्ग। उनके अर्थ एवं लक्षण आदि इसी प्रकरण मे पहले कहे ही जा चुके हैं।
७८. किसके लिये धुताङ्ग का सेवन उपयुक्त है?- रागचरित एवं मोहचरित के लिये । क्यों? क्योंकि धुताङ्गसेवन दुःखप्रतिपद् एवं उपेक्षाविहार हैं। दुःख-प्रतिपद् से राग शान्त हो जाता है। एवं जो उपेक्षा के कारण प्रमादरहित है, उसका मोह नष्ट हो जाता है। आरण्यकाङ्ग या वृक्षमूलिकाङ्ग का सेवन द्वेषचरित के लिये भी उपयुक्त है। एकान्त होने के कारण वहाँ उसके सङ्घर्षरहित होकर विहार करने से उसका द्वेष भी शान्त हो जाता है।।
यह धुत आदि का, विभाग के अनुसार, वर्णन समाप्त हुआ।। ७९ संक्षेप (समास) और विस्तार (व्यास) से- ये धुताङ्ग, संक्षेप में, तीन प्रधान (-शीर्ष) अङ्ग एवं पाँच असम्भिन्न अङ्ग-इस प्रकार कुल आठ ही होते हैं। उनमें, सापदानचारिकाङ्ग, ऐकासनिकाङ्ग, आभ्यवकाशिकाङ्ग-ये शीर्ष अङ्ग हैं, क्योंकि सापदानचारिकाङ्ग, ऐकासनिकाङ्ग. आभ्यवकाशिकाङ्गये शीर्ष अङ्ग हैं, क्योंकि सापदानचारिकाङ्ग का पालन करने वाला पिण्डपातिकाङ्ग का भी पालन करेगा । ऐसासनिकाङ्ग का पालन करने वाला पिण्डपातिकाङ्ग का भी पालन करेगा : ऐकासनिकाङ्ग का पालन करते हुए पात्रपिण्डिक एवं खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग का भी पालन हो जायगा। आभ्यवकाशिकाङ्ग के लिये वृक्षमूलिकाङ्ग और यथासस्तृतिकाङ्ग का पालन का महत्त्व रखता है! इस प्रकार ये तीन प्रधान अङ्ग एवं आरण्यकाङ्ग, पांशुकूलिकाङ्ग, त्रैचीवरिकाङ्ग, नैषधिकाङ्ग, श्माशानिका....ये पाँच असम्भिर अङ्ग-(सङ्कलनया) आठ ही होते हैं।