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## Discussion on the 35 Qualities of a Dharmadikari Following the Path
**How can a householder with Deshaviriti-Charitra become a Dharmadikari?** To explain this, we begin with the phrase "Tathahi" as an introduction.
**Qualities of a Dharmadikari following the path:**
**47.** Possessing wealth acquired through righteous means, a devotee of good conduct, marrying someone from a family with similar good character, and actively engaging with others from different lineages.
**48.** Fearful of sin, following the established customs of the land, not being prejudiced against anyone, especially not against kings or other dignitaries.
**49.** Living in a place that is neither too hidden nor too exposed, with a good neighborhood, and a house that does not have many entrances and exits.
**50.** Always associating with virtuous people, honoring one's parents, abandoning places of trouble, and not engaging in blameworthy activities.
**51.** Spending according to one's income, dressing according to one's wealth, possessing the eight virtues of intelligence, and listening to Dharma every day.
**52.** Abstaining from food when indigestion occurs, eating at the right time and in a way that suits one's constitution, fulfilling the three goals of life (Dharma, Artha, Kama) without hindering each other, and serving guests, saints, and the poor and needy according to one's capacity.
**53.** Always free from false claims, impartial in matters of virtue, and abandoning inappropriate customs and times.
**54.** Knowing the strengths and weaknesses of things, abandoning them accordingly, being steadfast in one's vows and rules, honoring those who are knowledgeable and elderly, and supporting and nurturing dependents.
**55.** Having foresight, being knowledgeable, grateful, beloved by the people, modest, compassionate, gentle, and dedicated to helping others.
**56.** Focused on eliminating the six internal enemies (lust, anger, greed, attachment, pride, and jealousy), controlling the senses, and being fit for the duties of a householder.
**Meaning:**
1. **Nayasampanna-Vibhava:** A righteous householder should first abandon acts like betrayal of the master, betrayal of friends, treachery, and theft, and acquire wealth through good conduct and justice according to their caste. Wealth acquired through righteous means is beneficial in this world. One who possesses wealth acquired through righteous means can enjoy its fruits without any guilt and can also share it with friends and relatives.
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धर्माधिकारी-मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४७ से ५६ देशविरति-चारित्र वाला गृहस्थ धर्माधिकारी कैसे बन सकता है? इसे बताने के लिए 'तथाहि' कहकर उसकी प्रस्तावना करते हैंधर्माधिकारी-मार्गानुसारी की योग्यता :।४७। न्यायसम्पन्नविभवः शिष्टाचार-प्रशंसकः । कुलशीलसमैः सार्धं, कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः ॥४७|| ।४८। पापभिरुः प्रसिद्धं च, देशाचारं समाचरन् । अवर्णवादी न क्वापि, राजादिषु विशेषतः ॥४८|| ।४९। अनतिव्यक्त गुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके । अनेकनिर्गमद्वारविवर्जितनिकेतनः ॥४९।।
५०। कृतसङ्गः सदाचारैर्माता-पित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥५०॥ १५१। व्ययमायोचितं कुर्वन्, वेषं वित्तानुसारतः । अष्टभिर्धीर्गुणैर्युक्तः, शृण्वानो धर्ममन्वहम् ॥५१॥ ।५२। अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्म्यतः । अन्योऽन्याप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन्।।५२।। १५३। यथावदतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत् । सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च ॥५३।। ।५४। अदेशाकालयोश्चयाँ, त्यजन् जानन् बलाबलम् । वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां, पूजकः पोष्य-पोषकः ॥५४|| ।५५। दीर्घदर्शी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलज्जः सदयः, सौम्यः, परोपकृतिकर्मठः ॥५५।। ५६। अंतरङ्गारिषड्वर्ग-परिहार-परायणः । वशीकृतेन्द्रियग्रामो, गृहीधर्माय कल्पते ॥५६॥ [कहीं क्रम में तफावत है]
(दशभिः कुलकम्) अर्थ :- १. जिसका धन-वैभव न्याय से उपार्जित हो, २. शिष्टाचार (उत्तम आचरण) का प्रशंसक, ३. समान
कुल-शील वाले अन्य गोत्र के साथ विवाह करने वाला, ४. पापभीरु, ५. प्रसिद्ध देशाचार का पालक, ६. किसी का भी अवर्णवादी नहीं, विशेषकर राजादि के अवर्णवाद का त्यागी, ७. उसका घर न अतिगुप्तः | हो और न अति प्रकट तथा उसका पड़ोस अच्छा हो और उसके मकान में जाने-आने के अनेक द्वार न हों। ८. सदाचारी का सत्संग करने वाला, ९. माता-पिता का पूजक, १०. उपद्रव वाले स्थान को छोड़ देने वाला, ११. निंदनीय कार्य में प्रवृत्ति न करने वाला, १२. आय के अनुसार व्यय करने वाला, १३. वैभव के अनुसार पोशाक धारण करने वाला, १४. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त, १५.. हमेशा धर्मश्रवणकर्ता, १६. अजीर्ण के समय भोजन का त्यागी, १७. भोजनकाल में स्वस्थता रूप से पथ्ययुक्त भोजन करने वाला, १८. धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गों का परस्पर अबाधक रूप से साधक अपनी शक्ति के अनुसार अतिथि, साधु एवं दीन-दुखियों की सेवा करने वाला, २०. मिथ्या-आग्रह से सदा दूर, २१. गुणों का पक्षपाती, २२. निषिद्ध देशाचार एवं निषिद्ध कालाचार का त्यागी, २३. बलाबल का सम्यग् ज्ञाता, २४. व्रत-नियम में स्थिर, ज्ञान-वृद्धों का पूजक, २५. आश्रितों का पोषक, २६. दीर्घदर्शी, २७. विशेषज्ञ, २८. कृतज्ञ, २९. लोकप्रिय, ३०. लज्जावान, ३१. दयालु, ३२. शांत-स्वभावी, २३. परोपकार करने में कर्मठ, ३४. कामक्रोधादि अंतरंग छह शत्रुओं को दूर करने में तत्पर, ३५. इंद्रिय-समूह को वश में करने वाला; इन पूर्वोक्त ३५ गुणों से युक्त व्यक्ति गृहस्थधर्म (देशविरतिचारित्र) पालन करने के योग्य
बन सकता है ॥४७-५६।। व्याख्या :
१. न्यायसंपन्न-विभव - नीतिमान गृहस्थ को सर्वप्रथम स्वामिद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वासघात तथा चोरी आदि निंदनीय उपायों का त्याग करके अपने-अपने वर्ण के अनुसार सदाचार और न्यायनीति से ही उपार्जित धन-वैभव से संपन्न होना चाहिए। न्याय से उपार्जित किया हुआ धन-वैभव ही इस लोक में हितकारी हो सकता है। जिसका धन न्यायोपार्जित होता है; वह निःशंक होकर अपने शरीर से उसका फलोपभोग भी कर सकता है; और मित्रों एवं स्वजनों
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