Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## A Detailed Description of the World View
This section, from verses 103 and 104 of the fourth chapter of the Yoga Shastra, describes the Jain concept of the world. It begins by discussing the characteristics of those who are not truly religious, and then moves on to explain the nature of the world itself.
**The Characteristics of Non-Religious People**
The text states that those who wear ornaments, carry tridents and axes, eat from broken pots, wear bells and anklets, and indulge in alcohol, meat, and women, cannot be considered truly religious. Similarly, those who follow the teachings of the Kulacharya, who eat roots, fruits, and leaves, and live in the forest with their wives and children, but do not understand the true meaning of the Jina's teachings, cannot be considered truly religious.
**The True Nature of Religion**
The text then explains that the true fruit of religion is liberation (moksha), not worldly gains. Just as a farmer plants seeds with the desire for grain, but also gets weeds and other unwanted plants, so too does a person who follows religion receive worldly benefits, but these are secondary to the ultimate goal of liberation.
**The World View**
The text then describes the world view of Jainism. It states that the world is made up of three realms: the lower realm (adho-lok), the middle realm (tiryak-lok), and the upper realm (urdhva-lok). The lower realm is further divided into seven hells, each with its own name and characteristics. These hells are surrounded by a vast ocean of solidified water (ghano-dhadhi), followed by a powerful wind (ghana-vat), and finally a weaker wind (tanu-vat).
The text emphasizes that the world is constantly changing, with everything being in a state of flux. It is made up of substances that are constantly being created and destroyed.
This description of the world view is meant to help the practitioner understand the nature of reality and to motivate them to strive for liberation from the cycle of birth and death.
________________
लोक भावना का विस्तृत वर्णन
योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाश श्लोक १०३ से १०४ आभूषण धारण करते हैं, त्रिशूल और खाटे के पाये को ढोए फिरते हैं, खप्पर में भोजन करते हैं; घंटा, नुपूर धारण करते हैं। मदिरा, मांस और स्त्रियों के भोग में आसक्त बने हुए निरंतर नितंब पर घंटा बांधे बार-बार नृत्य-गीत करने वालों में भला धर्म कैसे हो सकता है? तथा अनंतकाय, कंदमूल, फल और पत्तों का भोजन करने वाले तथा स्त्री-पुत्र के साथ वनवास स्वीकार करने वाले तथा भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय या आचरणीय-अनाचरणीय सब पर समभाव रखने वाले योगी के नाम से प्रसिद्धी पाने वाले कौलाचार्य के अंतेवासी शिष्य तथा दूसरे अथवा जिन्होंने जिनेन्द्रशासन के | रहस्य को जाना नहीं है, उनमें धर्म कहां से हो सकता है? उस धर्म का फल क्या है? उसकी सुंदर (शुद्ध) मर्यादाओं का कथन किस प्रकार का है? इसे वे कहां से जान सकते हैं? श्री जिनेश्वर भगवान् के धर्म का इस लोक और परलोक में जो फल है, वह तो गौणफल है, उसका मुख्यफल तो मोक्ष बताया है। किसान खेती करता है या अनाज बोता हैअनाज प्राप्त होने की इच्छा से; लेकिन घास, पात आदि बीच में मिल जाते हैं, वे तो आनुषंगिक फल है। इसी तरह धर्म का यथार्थ फल तो अपवर्ग-मोक्ष है, सांसारिक फल तो आनुषंगिक है। श्री जिनेन्द्रकथित धर्म के आश्रित स्वाख्यातताभावना पर बार-बार ध्यान देने से ममत्व रूप विषय विकारों के दोषों से मुक्त बनकर साधक परमप्रकर्ष वाला साम्यपद प्राप्त करता है। इस प्रकार धर्मस्वाख्यातताभावना पूर्ण हुई।
अब लोकभावना का निरूपण करते हैं।४२९। कटिस्थकरवैशाख-स्थानकस्थ-नराकृतिम् । द्रव्यैः पूर्णं स्मरेल्लोकं, स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकैः।।१०३।। अर्थ :- कमर पर दोनों हाथ रखकर और पैरों को फैलाकर खड़े हुए मनुष्य की आकृति के समान आकृति वाले |
और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य धर्म वाले द्रव्यों से पूर्ण लोक का चिंतन करे ।।१०३।। व्याख्या :- दोनों हाथ कमर पर रखे हों और वैशाख-संस्थान से दोनों पैर फैलाए हुए हों, इस प्रकार खड़े हुए पुरुष की आकृति के समान चौदह राजप्रमाण लोकाकाश-क्षेत्र की आकृति का चिंतन करना चाहिए। लोकाकाश क्षेत्र कैसा है? इसके उत्तर में कहते हैं-स्थिति, उत्पत्ति और व्यय रूप द्रव्यों से परिपूर्ण क्षेत्र है। स्थिति का अर्थ है-ध्रुवता, स्थायी रूप से टिके रहना; कायम रहना। उत्पत्ति का अर्थ है-उत्पन्न होना और व्यय का अर्थ है नष्ट होना। जगत के सभी पदार्थ स्थिति-उत्पाद-व्यय स्वरूप हैं। श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-उत्पाद-व्यय धौव्ययुक्तं सत्। (तत्त्वार्थ ५-२९) आकाश आदि नित्यानित्य रूप से प्रसिद्ध है। प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उस-उस पर्याय से उत्पन्न होता है, फिर नष्ट होता है। दीपक आदि के भी उत्पाद और विनाश दोनों योग बनते रहते हैं। परंतु एकांत स्थितियोग अथवा एकांत उत्पाद या विनाशयोग वाला कोई पदार्थ नहीं होता है। हमने अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका में कहा है-दीपक से लेकर आकाश तक सभी वस्तुएँ समस्वभाव वाली हैं, वे कोई भी स्याद्वाद की मुद्रा का उल्लंघन नहीं करती। उसमें से एक वस्तु सर्वथा नित्य ही है और दूसरी वस्तु एकांत अनित्य है, ऐसा प्रलाप आपकी आज्ञा के विद्वेषी ही करते हैं।।१०३।।
अब लोकस्वरूपभावना का स्वरूप बताते हैं।४३०। लोको जगत्-त्रयाकीर्णो, भुवः सप्ताऽत्र वेष्टिताः । घनाम्भोधि-महावात-तनुवातैर्महाबलैः।।१०४॥ अर्थ :- यह लोक तीन जगत् से व्याप्त है। उसे ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक के नाम से पुकारा जाता
है। अधोलोक में सात नरकभूमियाँ हैं, जो महासमर्थ घनोदधि, घनवात और तनुवात से क्रमशः वेष्टित
है ।।१०४।। व्याख्या :- पूर्वोक्त आकृति और स्वरूपवाला लोक अधो, तिर्यक् और ऊर्ध्व तीन लोक से व्याप्त है। अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमः प्रभा; ये यथार्थ नाम वाली सात नरकभूमियां है। तथा अनादिकाल से प्रसिद्ध निरन्वर्थक नाम वाली है। वह इस प्रकार-घर्मा, वंशा, शैला, अंजना, रिष्टा, मघा और माघवती। वे रत्नप्रभा आदि प्रत्येक के नीचे उत्तरोत्तर अधिकाधिक चौड़ी है। इनमें क्रमशः ३० लाख, २५ लाख, १५ लाख, १० लाख, ३ लाख, पांच कम एक लाख और पांच नारकावास है। उनके नीचे और आसपास चारों ओर गोलाकार वेष्टित (घिरा हुआ) महाबलशाली घनोदधि (जमा हुआ ठोसघनसमुद्र) है, फिर घनवात (जमी
375