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Explanation about the transgressions of the vows of Svadāra-santosa (contentment with one's own spouse) and Paradārātyāga (abstinence from others' spouses)
Yogaśāstra, Tṛtīya Prakāśa, Śloka 93:
1. Paradāravivahakaraṇa (arranging the marriage of others' spouses): If one performs the marriage ceremony out of affection or with the hope that the daughter will also get a match, it is considered a transgression called Paradāravivahakaraṇa.
2. Paradārasaṃsarga (sexual intercourse with others' spouses): One who has taken the vow of Svadārasantosavrata (contentment with one's own spouse) or the vow of not engaging in sexual activity with anyone other than one's own accepted spouse, mentally, verbally, or physically, should abstain from arranging the marriages of others. Facilitating sexual intercourse between others is considered a transgression of this vow.
3. The desire to obtain the fruit of kanyadāna (giving away the daughter in marriage) while in an immature state of right belief (samyagdṛṣṭi) is also a transgression. However, if a person with wrong belief (mithyādṛṣṭi) performs such an act with a benevolent intention, it is considered a case of mithyātva (wrong belief).
4. Kāmakrīḍātīvra-āsakti (excessive attachment to sensual pleasures): When a person neglects all other activities and is obsessed with indulging in sexual pleasures day and night, or remains motionless like a log in the mouth, armpits, or vagina of a woman, or engages in repeated sexual intercourse like male and female birds, and uses aphrodisiacs or tonics to regain sexual potency, it is considered the transgression of Kāmakrīḍātīvra-āsakti.
5. Anangakrīḍā (unnatural sexual acts): The desire of a man to engage in sexual activity with parts of the body other than the genitals, or the desire of a woman or a eunuch to engage in sexual activity with parts of the body other than the genitals, or the desire of a eunuch to engage in sexual activity with a woman, man, or another eunuch, or to perform manual stimulation, is considered Anangakrīḍā.
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स्वदार संतोष और परदारात्याग नामक व्रत के अतिचारों के बारे में स्पष्टीकरण
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ९३ | अपने पुत्र को भी कन्या मिल जाने की आशा से अथवा स्नेहसंबंध से लिहाज में आकर विवाहक्रिया करने से परविवाहकरण नामक अतिचार लगता है। जिसने अपनी पाणिगृहीत स्त्री के सिवाय अन्यस्त्री के साथ मैथुन - सेवन नहीं करना, नहीं कराना; इस रूप में स्वदारसंतोषव्रत लिया हो, अथवा अपनी स्त्री या विवाह किये बिना ही स्वीकृत स्त्री के अलावा अन्य से मन, वचन, काया से मैथुनसेवन न करने, न कराने का व्रत अंगीकार किया हो, उसके द्वारा दूसरों के विवाह संबंध जोड़ना; वस्तुतः मैथुन में प्रवृत्त कराना है, इस दृष्टि से इस बात का त्याग ही होना चाहिए। इस अपेक्षा से ऐसी प्रवृत्ति से उसका व्रतभंग होने पर भी वह अपने मन में समझता है - मैं तो केवल विवाह कराता हूं, मैथुन| सेवन नहीं कराता । इसलिए मेरा व्रतभंग नहीं होता। इस प्रकार अपने व्रत की रक्षा करने की भावना होने से ऐसी हालत | में उसे अतिचार लगता है। परविवाह करके कन्यादान का फल प्राप्त करने की इच्छा सम्यग्दृष्टि को अपरिपक्व अवस्था में होती है। यदि मिथ्यादृष्टि भद्रपरिणामी व्यक्ति चतुर्थव्रत लेकर उपकारबुद्धि से ऐसा करता है तो, वहां उसे मिथ्यात्व लगता है। यहां प्रश्न होता है कि जब दूसरे के संतानों का विवाह करने में अतिचार लगता है तो अपने पुत्र-पुत्री आदि | का विवाह करने में अतिचार क्यों नहीं लगता? दोष तो दोनों हालत में समान है। इसका समाधान ज्ञानीपुरुष यों करते | | हैं कि यह बात ठीक है कि दोनों के विवाह करने में एक सरीखा दोष है। लेकिन स्वदारसंतोषी यदि अपनी पुत्री का | विवाह नहीं करता है तो उसके व्यभिचारिणी या स्वच्छंदाचारिणी बन जाने की संभावना है, इससे जिनशासन की एवं | अपनी ली हुई प्रतिज्ञा की अपभ्राजना होती है, किन्तु उसकी शादी कर देने के बाद तो वह अपने पति के अधीन हो | जाती है, इसलिए वैसा नहीं होता। यदि होता है तो भी अपने व्रत या धर्म की निंदा नहीं होती। नीतिशास्त्र में भी | कहा है - स्त्री की कौमार्य अवस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करता है। इसलिए स्त्री किसी | भी हालत में स्वतंत्रता के योग्य नहीं है। (मनु स्मृति ९/३) ऐसा सुना जाता है कि दशार्ह श्रीकृष्ण तथा चेटक राजा के अपने संतान का विवाह न करने का नियम था । उनके परिवार में अन्य लोग विवाहादि कार्य करने वाले थे; इसलिए उन्होंने ऐसा नियम लिया था। इस अतिचार के अर्थ के विषय में अन्य आचार्यों का मत है - अपनी स्त्री में पूर्ण संतोष न मिलता हो, तब ( उसकी अनुमति के बिना) अन्य स्त्री से विवाह करने से परविवाहकरण नामक अतिचार लगता है। उनके मतानुसार स्वदार संतोषी को यह तीसरा अतिचार लगता है । ४. काम-क्रीड़ा में तीव्र आसक्ति नामक अतिचार तब होता है, जब पुरुष अन्य सभी कार्यों या प्रवृत्तियों को छोड़कर रात-दिन केवल विषयभोग की ही धुन में रहता है, कामभोग के विषय में ही सोचता है अथवा स्त्री के मुख, कांख या योनि आदि में पुरुषचिह्न डालकर काफी समय | तक अतृतरूप में शब की तरह निश्चेष्ट पड़ा रहता है, या नर और मादा चिड़िया की तरह बार-बार संभोग करने में प्रवृत्त होता है, अगर कमजोर हो जाय तो संभोग करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए बाजीकरण का प्रयोग करता है या | रसायन ( भस्म आदि) का सेवन करता है। क्योंकि बाजीकरण से या ऐसी औषधि आदि का सेवन करने से पुरुष हाथी | को भी हरा देता है; घोड़े को भी पछाड़ देता है; इस प्रकार से बलवान बनकर पुरुष अतिसंभोग में प्रवृत्त होता है। | वह सोचता है कि मेरे तो परस्त्रीसेवन का त्याग है, स्वस्त्री के साथ चाहे जितनी बार संगम करने में व्रतभंग तो होता नहीं। इस अपेक्षा से उसे चौथा अतिचार लगता है । ५. अनंगक्रीड़ा- पुरुष को अपने कामांग से भिन्न पुरुष, स्त्री या नपुंसक के कामांग से सहवास करने की इच्छा होना अथवा वेदोदय से हस्तकर्म आदि करने की इच्छा होना तथा स्त्री को पुरुष, स्त्री या नपुंसक के साथ सहवास करने की इच्छा होना अथवा वेदोदय से हस्तकर्म आदि करने की इच्छा होना एवं नपुंसक को स्त्री, पुरुष या नपुंसक के साथ संभोग की अथवा वेदोदय से हस्तकर्म आदि करने की इच्छा होना; अनंगक्रीड़ा है। अनंगक्रीड़ा का तात्पर्य है - कामोत्तेजनावश मैथुनसेवन के योग्य अंगों के अतिरिक्त दूसरे अंगों से दुश्चेष्टा करना, दूसरी इंद्रियों से संभोगक्रीड़ा करना अथवा असंतुष्ट होकर काष्ठ, पत्थर या धातु की योनि या लिंग सरीखी | आकृति बनाकर अथवा केले आदि फलों से लिंगाकृति कल्पित करके या परवल आदि से योनि-सी आकृति की कल्पना | करके अथवा मिट्टी, रबड़ या चमड़े आदि के बने हुए पुरुषचिह्न या योनिचिह्न से कामक्रीड़ा करना; स्त्री के योनि प्रदेश को बार-बार मसलना, उसके केश खींचना, उसके स्तनों को बार-बार पकड़ना, पैर से कोमल लात मारना, दांत या
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