SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
Jain Terms Preserved: Manusmriti and others describe the faults of meat-eating and the miserable condition of meat-eaters. The Yogashastra, in verses 25-29 of the third chapter, refutes those who say that there is no fault in meat-consumption. 25. Those wicked people who say, "There is no fault in meat-eating," have probably taken the hunter, vulture, wolf, tiger, and jackal as their gurus. 26. Manu has also explained the etymology of the word "mansa" (meat) - "maa" means me, and "sa" means that which will eat me in the next birth; this is the true nature of meat. 27. The intellect of a person greedy for the taste of meat turns towards killing other living beings, just like the intellect of a Shakini (a type of witch). 28. Even though divine eatables are available, they eat flesh, abandoning the nectar-like substances, and consume the deadly poison. 29. The merciless one has no dharma, and how can the greedy one have compassion? The meat-greedy one does not know this, nor should one teach him.
Page Text
________________ मनुस्मृति आदि में मांसत्यागवर्णन और मांसभोजी की दुर्दशा योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक २५ से २९ मांसभक्षण में दोष नहीं है, ऐसा कहने वालों का खंडन करते हैं।१९६। मांसाशने न दोषोऽस्तीत्युच्यते यैर्दुरात्मभिः । व्याध-गृध-वृकव्याघ्रशृगालास्तैर्गुरुकृताः ॥२५।। अर्थ :- मांसभक्षण में कोई दोष नहीं है, ऐसा जो दुरात्मा कहते हैं, उन्होंने पारधी (बहेलिया), गीध, भेड़िया, बाघ, सियार आदि को गुरु बनाया होगा! ।।२५।। व्याख्या :- 'जो दुरात्मा स्वाभाविक रूप से कहते हैं कि' 'मांस खाने में कोई दोष नहीं है।' जैसे कि कहा हैमांसभक्षण करने में, शराब पीने में, मैथुनसेवन में कोई दोष नहीं है, यह तो जीव की प्रवृत्ति है, जो उसकी निवृत्ति करते हैं, वे महाफलसंपन्न है। इस प्रकार का कथन करने वालों ने सचमुच शिकारी, गीध, जंगली कुत्ता, श्रृंगाल आदि को गुरु बनाया होगा; अर्थात् उनसे उपदेश लिया होगा। व्याघ्र आदि गुरु के बिना और कोई इस प्रकार की शिक्षा या उपदेश दे नहीं सकते। महाजनों के पूज्य तो ऐसा उपदेश देते नहीं। वे तो कहते हैं-निवृत्ति महाफला है, प्रवृत्ति तो दोषयुक्त है। 'प्रवृत्ति दोषयुक्त नहीं होती', इस वचन का तो वह स्वयंमेव विरोध करता है। इस विषय में अधिक क्या कहें? ।।२५।। __ अब ऊपर बताये हुए (मनुस्मृति अध्याय ५ श्लोक ५५) से भी मांस त्याज्य है, इसे बताते हैं।१९७। मां स भक्षयितामुत्र, यस्य मांसमिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तं मनुरब्रवीत् ॥२६।। अर्थ :- मनु ने भी मांस शब्द की इसी प्रकार (निरुक्त किया) व्युत्पत्ति की है-मांस-जिसका मांस में इस जन्म में खाता हूं, स अर्थात् वह, मां-मुझे पर (अगले) जन्म में खायेगा; यही मांस का मांसत्व है ।।२६।। अब मांसाहार में महादोष का वर्णन करते हैं१९८। मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनं देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिः शाकिन्या इव दुर्धियः ॥२७॥ अर्थ :- मांस के आस्वादन में लोलुप बने हुए दुर्बुद्धि मनुष्य की बुद्धि शाकिनी की तरह जिस किसी जीव को देखा, उसे ही मारने में प्रवृत्त हो जाती है ।।२७।। ___ व्याख्या :- जिस प्रकार शाकिनी जिस-जिस पुरुष, स्त्री या अन्य जीव को देखती है, उसकी बुद्धि उसे मारने की होती है, उसी प्रकार मांस के स्वाद में लुब्ध बना हुआ कुबुद्धि मनुष्य मछली आदि जलचर; हिरन, सूअर, बकरा आदि स्थलचर; तीतर, बटेर आदि खेचर; अथवा चूहा, सांप आदि उरपरिसर्प को भी मार डालने की बुद्धि होती है। यानी उस दुर्बुद्धि की बुद्धि मारने आदि बुरे काम में ही दौड़ती है, अच्छे कार्यों में नहीं दौड़ती। वह खाने लायक उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड़कर मांस, रक्त, चर्बी आदि गंदी रद्दी चीजों को खाने में ही लगती है ।।२७।। इसी बात को कहते हैं।१९९। ये भक्षयन्ति पिशितं, दिव्यभोज्येषु सत्स्वपि । सुधारसं परित्यज्य, भुञ्जते ते हलाहलम् ॥२८॥ अर्थ :- दिव्य (सात्त्विक) भोज्य पदार्थों के होते हुए भी जो मांस खाते हैं, वे सुधारस को छोड़कर हलाहल जहर खाते हैं ॥२८॥ व्याख्या :- समस्त धातुओं को पुष्ट करने वाला, सर्वेन्द्रिय-प्रीतिकारक दूध, खीर, खोआ, बर्फी, पेड़ा, श्रीखंड, दही, मोदक, मालपूआ, घेवर, तिलपट्टी, बड़ी पूरणपोली, बड़े पापड़, ईख, शक्कर, किशमिश, बादाम, अखरोट, काजू, आम, केला, दाडिम, नारंगी, चीकू, खजूर, खिरनी, अंगूर आदि अनेक दिव्य खाद्यपदार्थ होते हुए भी उन्हें ठुकराकर जो मूर्ख बदबूदार, घिनौने, देखने में खराब, वमनकारक, सूअर आदि का मांस खाता है, वह वास्तव में जीवन-रस वर्द्धक अमृतरस को छोड़कर जीवन का अंत करने वाले हलाहल जहर का पान करता है। छोटा-सा बालक | भी इतना विवेकी होता है कि वह पत्थर को छोड़कर सोने को ग्रहण कर लेता है। मांसभक्षण करने वाले तो उस बालक से भी बढ़कर अविवेकी और नादान है ।।२८।। प्रकारांतर से मांसभक्षण के दोष बतलाते हैं।।२००। न धर्मो निर्दयस्यास्ति, पलादयस्य कुतो दया ॥ पललुब्धो न तद्वेत्ति, विद्याद् वोपदिशेन्नहि।।२९।। 194
SR No.002418
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherLehar Kundan Group
Publication Year
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy