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Kamuk Stri Ki Dushtatā
Yogaśāstra Dvitīya Prakāśa Śloka 80 se 84 |136| Raktajāḥ Kṛmayaḥ Sūkṣmā, Mṛdumadhy-ādhiśaktayaḥ | Janmavartmasu Kaṇḍūrti, Janayanti Tathāvidhām ||80|| Arthaḥ:- Rakta se utpanna sūkṣma, mṛdu, madhyam aur adhik śakti vāle sūkṣma kṛmi strī ke yoni mārgon mein vaisī khujlī paidā karte haiṃ ||80||
137| Strīsambhogena Yaḥ Kāmajvaram Praticcikīrṣati | Sa Hutāśaṃ Ghṛtāhutyā, Vidhyāpayitumicchati ||81|| Arthaḥ:- Jo log strīsaṃbhog se kāmajvara kā pratīkāra (cikitsāśamana yā śānti) karnā cāhate haiṃ, ve jaltī huī āg mein ghī kī āhuti dekar usē bujhānā cāhate haiṃ ||81||
138| Varam Jvaladayaḥstambha-Parirambo Vidhīyate | Na Punarnarakadvāra-Rāmājaghan-Sevanam ||82|| Arthaḥ:- Āg se tape hue jājvalyamān lohe ke khaṃbhe kā āliṃgana karnā acchā hai, magar narak-dvār ke tulya strī-jaghannya kā sevan karnā acchā nahīṃ ||82||
139| Satāmapi Hi Vāmabhruḥ Dadānā Hṛdaye Padam | Abhirāmaṃ Guṇagrāmaṃ, Nirvāsayati Niścitam ||83|| Arthaḥ:- Satpuruṣoṃ ke hṛdaya mein agar strī kā kaṭākṣa sthān jamā le to vah niścit hī sundar guṇasamudāya ko vahāṃ se nikāl detā hai ||83||
140| Vaṃcakatvaṃ Nṛśaṃsatvaṃ, Caṃcalatvaṃ Kuśīlatā | Iti Naisargikā Doṣā, Yāsāṃ Tāsu Ramet Kaḥ? ||84|| Arthaḥ:- Svabhāv se (naisargika rūp se) jinmein vaṃcakatā (ṭhagāī), nirdayatā, caṃcalatā aur kuśīlatā (saṃyamābhāva) ādi doṣ hote haiṃ, un (tucch striyoṃ) mein kaun samajhdār puruṣ rāgabuddhi se (āsaktipūrvak) ramaṇ kar sakatā hai? ||84||
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कामुक स्त्री की दुष्टता
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ८0 से ८४ ।१३६। रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा, मृदुमध्याधिशक्तयः । जन्मवर्त्मसु कण्डूर्ति, जनयन्ति तथाविधाम् ॥८०।। ___ अर्थ :- रक्त से उत्पन्न सूक्ष्म, मृदु, मध्यम और अधिक शक्ति वाले सूक्ष्म कृमि स्त्री के योनि मार्गों में वैसी खुजली
पैदा करते हैं ।।८।। __ मैथुनसेवन से जो कामज्वर की शांति मानते हैं, या उसे कामज्वर की चिकित्सा या प्रतीकार मानते हैं, उनके भ्रम का निवारण करते हैं।१३७। स्त्रीसम्भोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति । स हुताशं घृताहुत्या, विध्यापयितुमिच्छति ॥८१।। अर्थ :- जो लोग स्त्रीसंभोग से कामज्वर का प्रतीकार (चिकित्साशमन या शांति) करना चाहते हैं, वे जलती हुई
आग में घी की आहुति देकर उसे बुझाना चाहते हैं ।।८।। व्याख्या :- वास्तव में स्त्रीसहवास से कामज्वर शांत नहीं होता, बल्कि और अधिक बढ़ जाता है। नीतिशास्त्र में भी बताया है-कामोपभोग से काम कदापि शांत नहीं होता, अपितु घी की आहुति देने पर आग और ज्यादा भड़क उठती है, वैसे ही कामसेवन से काम अधिक ही उत्तेजित होता है। कामज्वर को शांत करने की कोई भी अचूक
औषधियां प्रतीकारक उपाय रूप हैं तो वे हैं-वैराग्यभावना, परसेवा, धर्मक्रिया या धर्मानुष्ठान, धर्मशास्त्र श्रवण आदि हैं। अतः कामज्वर को शांत करने का उत्तम साधन होने पर भी भव-भ्रमण कारण रूप मैथुनसेवन करने से क्या लाभ?।।८१।।
इसी बात को स्पष्ट करते हैं१३८। वरं ज्वलदयःस्तम्भ-परिरम्भो विधीयते । न पुनर्नरकद्वार-रामाजघन-सेवनम् ॥८२॥ अर्थ :- आग से तपे हुए जाज्वल्यमान लोहे के खंभे का आलिंगन करना अच्छा है, मगर नरक-द्वार के तुल्य
स्त्री-जघन्य का सेवन करना अच्छा नहीं ।।८।। व्याख्या :- एक बार कामज्वर को शांत करने के लिए मैथुन कदाचित् उपाय हो जाय; मगर नरक का कारण रूप होने से वह कदापि प्रशंसनीय नहीं है। और स्त्री के विषय में या स्त्री का स्मरण करने पर भी वह सारे गुणगौरव का अवश्य नाशकर देता है ।।८।।
इसी बात की पुष्टि करते हैं१३९। सतामपि हि वामभ्रूर्ददाना हृदये पदम् । अभिरामं गुणग्रामं, निर्वासयति निश्चितम्. ।।८३।। अर्थ :- सत्पुरुषों के हृदय में अगर स्त्री का कटाक्ष स्थान जमा ले तो वह निश्चित ही सुंदर गुणसमुदाय को वहां
से निकाल देता है ।।८३।।। व्याख्या :- निःसंदेह, कटाक्ष करने वाली स्त्रियों का स्मरणमात्र ही सज्जन-पुरुषों के गुणसमुह का बहिष्कार कर देता है। तात्पर्य यह है कि जैसे खराब (भ्रष्ट) राज्याधिकारी को किसी स्थान पर नियुक्त किये जाने पर वह लोभवृत्ति से वहां का रक्षण के बजाय भक्षण करने लगता है। इसी प्रकार हृदय में स्थान पायी हुई कामिनी भी पालन-रक्षण करने योग्य गुणसमूह को समूल उखाड़ फेंकती है। अथवा सत्पुरुषों के गुणसमूह पर पैर रखकर या उसके हृदय में प्रवेश करके नारी पुरुष के उत्तमगुणों को चौपट कर देती है। हृदय में स्थान पायी हुई स्त्री अनेक दोषयुक्त होने से गुणवृद्धि के बदले गुणहानि की ही प्रायः कारणभूत बनती है; फिर उसके साथ रमण करने की तो बात ही दूर रही! ।।८३।।
इसी के समर्थन में कहते हैं।१४०। वञ्चकत्वं नृशंसत्वं, चञ्चलत्वं कुशीलता । इति नैसर्गिका दोषा, यासां तासु रमेत कः? ॥८४।। अर्थ :- स्वभाव से (नैसर्गिक रूप से) जिनमें वंचकता (ठगाई), निर्दयता, चंचलता और कुशीलता (संयमाभाव)
आदि दोष होते हैं, उन (तुच्छ स्त्रियों) में कौन समझदार पुरुष रागबुद्धि से (आसक्तिपूर्वक) रमण कर
सकता है? ||८४॥ स्त्रियों में सिर्फ इतने ही दोष नहीं है, अपितु और भी कई दोष हैं, उन्हें बताते हैं
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