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________________ निर्वाण उपनिषद है। इट इज़ नाट ए वर्क, बट ए प्ले। काम नहीं है करुणा; खेल है, क्रीड़ा है। क्रीड़ा और काम में क्या फर्क है? कुछ बुनियादी फर्क है। एक तो यह कि काम अपने आप में मूल्यवान नहीं होता, क्रीड़ा अपने आप में मूल्यवान होती है। अगर आप सुबह घूमने निकले हैं और कोई पूछे कि किसलिए घूमने निकले हैं, तो आप कहेंगे कि घूमने में आनंद है, किसलिए नहीं। कहीं पहुंचने के लिए नहीं निकले हैं। कोई मंजिल नहीं है, कोई गंतव्य नहीं है। फिर उसी रास्ते से आप अपने दफ्तर जाते हैं। तो कोई आदमी पूछता है, बड़े आनंद से टहल रहे हैं! तो आप कहते हैं, टहल नहीं रहा हूं, दफ्तर जा रहा हूं। और कभी आपने खयाल किया कि रास्ता वही होता है, आप वही होते हैं। सुबह जब टहलने निकलते हैं, तब पैरों का आनंद और है, और जब उसी रास्ते से दफ्तर की तरफ जाते हैं, तब छाती पर पत्थर और है। रास्ता वही, पैर वही, चलना वही, आप वही, सब वही। सिर्फ एक बात बदल गई कि अब चलना काम है, और तब चलना खेल था। जो बुद्धिहीन हैं, वे अपने खेल को भी काम बना लेते हैं; जो बुद्धिमान हैं, वे अपने काम को भी खेल बना लेते हैं। ऋषि कहता है, क्रीड़ा है करुणा उनकी। वह भी काम नहीं है। वह भी कोई बोझ नहीं है। वह भी कुछ ऐसा नहीं है कि बुद्ध ने तय ही कर रखा है कि इतने लोगों का निर्वाण करवाकर रहेंगे। अगर न हुआ, तो बड़े दुखी होंगे, बड़े पीड़ित होंगे, बड़े पछताएंगे। बुद्ध ने कुछ तय नहीं कर रखा है कि आपका अज्ञान तोड़कर ही रहेंगे, नहीं टूटा तो छाती पीटकर रोएंगे। खेल है, आनंद है कि आप जग जाएं। न जगें, आपकी मर्जी, बात समाप्त हो गई। खेल पूरा हो गया। तो एक व्यक्ति भी न जगे बुद्ध के प्रयासों से, तो भी बुद्ध उसी आनंद से परिभ्रमण करते विदा हो जाएंगे। उस आनंद में कोई फर्क न पड़ेगा। बुद्ध का आनंद था कि वे बांट दें। नहीं लिया, वह जिम्मा आपका है। उसके लिए उन्हें पीड़ित होने का कोई भी कारण नहीं। इसलिए कहा, क्रीड़ा। खेल बन जाए तो फिर आनंद है और काम बन जाए तो बोझ है। तो फिर बुद्ध मरते वक्त हिसाब रखेंगे कि इतने लोगों से कहा, किसी ने लिया, नहीं लिया! इतने लोगों को समझाया, कोई समझा, नहीं समझा ! नहीं तो मेरा श्रम व्यर्थ गया। ध्यान रखिए, काम अगर पूरा न हो, फल न लाए, तो श्रम व्यर्थ चला जाता है। लेकिन क्रीड़ा का श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता, वह तो क्रीड़ा में ही पूर्ण हो गया। कोई फल का सवाल नहीं। और इसलिए भी क्रीड़ा कहा कि सिर्फ क्रीड़ा ही फलाकांक्षा से मुक्त हो सकती है। काम कभी भी फलाकांक्षा से मुक्त नहीं हो सकता। कृष्ण ने गीता में फलाकांक्षारहित कर्म की बात कही है। यह उपनिषद का ऋषि ज्यादा ठीक शब्द का प्रयोग कर रहा है, कृष्ण से भी ज्यादा ठीक शब्द का। क्योंकि फलाकांक्षारहित कर्म...। कर्म होगा तो उसमें फलाकांक्षा हो जाएगी, या फिर कर्म का अर्थ क्रीड़ा करना पड़ेगा। इसलिए इस ऋषि ने यह नहीं कहा कि करुणा उनका कर्म है। कहा, करुणा उनकी केलि, उनका खेल है। कहीं कोई आकांक्षा उससे तृप्त होने को नहीं है। कहीं कोई इच्छा भविष्य में पूरी होने के लिए 788
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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