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निर्वाण उपनिषद
सत्संग का यही अर्थ था। यही अर्थ था, किसी जागे हुए पुरुष के पास होना। उस जागे हुए के पास होने से शायद आपकी नींद भी टूट जाए। शायद नींद का एकाध कण भी टूटे, करवट बदलते वक्त जरा सी आंख भी खुले और जागे हुए व्यक्तित्व का दर्शन हो जाए, तो शायद आकांक्षा, प्यास जगे, अभीप्सा पैदा हो और आप भी जागने की यात्रा पर निकल जाएं।
अगर कभी ऐसा हुआ कि बहुत लोग जाग सके और जागे लोगों का समाज बन सका, तो निश्चित ही हम यह बात उस दिन कहेंगे कि हमारे पूरे इतिहास में हमने जिन लोगों को जुर्मी ठहराया, अपराधी ठहराया, वह गलती हो गई । वे सोए हुए लोग थे । सोए हुए लोग अपराध करेंगे ही।
अदालतें माफ कर देती हैं, अगर नाबालिग हो, व्यक्ति अपराध करे। क्योंकि वे कहती हैं, अभी समझ कहां! लेकिन बालिग के पास समझ है ? अदालतें क्षमा कर देती हैं अपराधों को या कम कर देती हैं, न्यून कर देती हैं, अगर आदमी ने नशे में किया हो। क्योंकि वे कहते हैं, जो होश में नहीं था, उसके ऊपर जिम्मेवारी क्या! लेकिन हम होश में हैं ?
सच तो यह है कि हमारा पूरा इतिहास सोए हुए आदमियों के कृत्यों का इतिहास है । इसीलिए तो तीन हजार वर्षों में हमको सिवाय युद्धों के और कुछ नहीं । युद्ध और युद्ध । तीन हजार वर्ष में, चौदह हजार सात सौ युद्ध हुए जमीन पर ! सिवाय लड़ने के ... और ये तो बड़े युद्ध हैं, जिनका इतिहास उल्लेख करता है। दिनभर जो छोटी-मोटी लड़ाइयां हम लड़ते हैं, परायों से और अपनों से, उनका तो कोई हिसाब नहीं, लेखा-जोखा नहीं। पूरी जिंदगी हमारी कलह के अतिरिक्त और क्या है ! और पूरी जिंदगी हम सिवाय दुख के क्या अर्जित कर पाते हैं! यह सोए हुए होने की अनिवार्य परिणति है । ऋषि कहता है, संन्यासी का तो विवेक ही रक्षा है।
हिम्मतवर लोग थे, बड़े साहसी लोग थे, जिन्होंने यह कहा। नहीं कहा कि नीति में रक्षा है, नियम
में रक्षा है। नहीं कहा मर्यादा में रक्षा है, नहीं कहा शास्त्र में रक्षा है, नहीं कहा गुरु में रक्षा है। कहा विवेक
में रक्षा है, होश में रक्षा है। होश के अतिरिक्त कोई रक्षा नहीं हो सकती । भूल होकर ही रहेगी।
करुणा ही उनकी क्रीड़ा है। करुणैव केलिः ।
एक ही उनका खेल है, जागे हुओं का - करुणा । कहें कि एक ही उनका रस बाकी रह गया, कहें कि बस एक ही बात उन्हें और करने योग्य रह गई है – करुणा ।
बुद्ध को ज्ञान हुआ। फिर वे चालीस वर्ष जीवित थे। हम पूछ सकते हैं कि जब ज्ञान हो गया, अब चालीस वर्ष जीवित रहने का कारण क्या है? करुणा ! महावीर को ज्ञान हुआ, उसके बाद वे भी इतने ही समय जीवित थे। जब ज्ञान ही हो गया और परम अनुभूति हो गई, तो अब इस शरीर को ढोने की और क्या जरूरत है? करुणा ! जो भी जान लेता है, जानने के साथ ही उसके भीतर वासना तिरोहित हो जाती. है और करुणा का जन्म होता है । वासना में जो शक्ति काम आती है, वही ट्रांसफार्म, वही रूपांतरित होकर करुणा बन जाती है।
हम वासना में जीते हैं। वासना ही हमारा जीवन है। वासना का अर्थ है: हम कुछ पाने को जीते हैं। जब वासना रूपांतरित होती है, करुणा बनती है, तो उलटी हो जाती है। करुणा का अर्थ है : हम कुछ देने को जीते हैं।
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