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________________ संन्यासी अर्थात जो जाग्रत है, आत्मरत है, आनंदमय है, परमात्म-आश्रित है हो जाता है, हां का मतलब हां और न का मतलब न होने लगता है। उस एक सुर से बंध गई चेतना का नाम विवेक है। जागी हई चेतना का नाम विवेक है। होश से भर गई चेतना का नाम विवेक है। ऋषि कहता है, विवेक ही रक्षा है और कोई रक्षा नहीं। अदभुत है रक्षा लेकिन। क्योंकि विवेक जगा हो, तो भूल नहीं होती। ऐसा नहीं कि भूल नहीं करनी पड़ती। ऐसा नहीं कि भूल को रोकना पड़ता है। ऐसा भी नहीं कि भूल से लड़ना पड़ता है। बस, ऐसा कि भूल नहीं होती। जैसे आंखें खुली हों, तो आदमी दीवार से नहीं टकराता और दरवाजे से निकल जाता है। ऐसे ही भीतर विवेक की आंख जगी हो, तो आदमी गलत को नहीं चुनता और ठीक ही उसका मार्ग बन जाता है। विवेक रक्षा। जागा हुआ होना ही इस जगत में एकमात्र रक्षा है। सोया हुआ होना इस जगत में हजार तरह की विक्षिप्तताओं को, हजार तरह की रुग्णताओं को निमंत्रण देना है। हजार तरह के शत्रु प्रवेश कर जाएंगे और जीवन को नष्ट कर देंगे, छिद्र-छिद्र कर देंगे, खंड-खंड कर देंगे। तो जागना ही सूत्र है। संन्यासी का अर्थ है : जो निरंतर जागा हुआ जी रहा है, होशपूर्वक जी रहा है। कदम भी उठाता है, तो जानते हुए कि कदम उठाया जा रहा है। श्वास भी लेता है, तो जानते हुए कि श्वास ली जा रही है। . श्वास बाहर जाती है, तो जानता है कि बाहर गई; श्वास भीतर जाती है, तो जानता है कि भीतर गई। एक विचार मन में उठता है, तो जानता है कि उठा; गिरता है, तो जानता है कि गिरा। मन खाली होता है, तो जानता है मन खाली है। मन भरा होता है, तो जानता है कि मन भरा है। एक बात पक्की है कि जानने की सतत धारा भीतर चलती रहती है। और कुछ भी हो, जानने का सूत्र भीतर चलता रहता है। 'यही रक्षा है, क्योंकि जानकर कोई गलत नहीं कर सकता। सब गलती अज्ञान है या सब गलती मूर्छा है। अगर किसी दिन...। ____ अभी तो कभी-कभी कोई व्यक्ति जागता है—कभी कोई बुद्ध, बुद्ध का अर्थ है जागा हुआ; कभी कोई महावीर, जिन का अर्थ है जीता हुआ, जिसने अपने को जीत लिया; कभी कोई क्राइस्ट-कभी-कभी एकाध व्यक्ति जागता है हम सोए हए लोगों की दनिया में। हम उस पर बहत नाराज भी होते हैं। क्योंकि जहां बहुत लोग सोए हों, वहां एक आदमी का जगना नींद में दूसरों की बाधा बनता है। और वह जागा हुआ उत्सुक हो जाता है कि सोए हुओं को भी जगाए। और सोए हुए नाराज होते हैं, बहुत नाराज होते हैं। उनकी नींद में दखल होती है। और यह जागा हुआ इस तरह की बातें करने लगता है कि उनके सपनों का खंडन होता है। इसलिए हम सब सोए हुए लोग जागे हुए आदमी को समाप्त कर देते हैं। जब वह समाप्त हो जाता है, तब हम उसकी पूजा करते हैं। पूजा नींद में चल सकती है। जागे हुए आदमी की दोस्ती नहीं चल सकती। जागे हुए आदमी के साथ जीना हो, तो दो ही उपाय हैं : या तो वह आपकी माने और सो जाए, या आप उसकी मानें और जग जाएं। पहले का तो उपाय है नहीं। जो जाग गया, वह सोने को राजी नहीं हो सकता है। जिसके हाथ में हीरे आ गए, वह कंकड़-पत्थर रखने को राजी नहीं हो सकता। जिसको अमृत दिखाई पड़ गया, उसको आप डबरे का पानी पीने को कहें, मुश्किल है, असंभव है। आपको ही जगना पड़े उसके साथ। 857
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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