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पावन दीक्षा-परमात्मा से जुड़ जाने की
है। तो पवित्र सोना हो सकता है, अपवित्र सोना हो सकता है। लेकिन जैसा मैंने कहा, आकाश है, वह पावन है। उसको अपवित्र करने का कोई उपाय नहीं, उसमें अशुद्ध मिलाने का कोई उपाय नहीं।
तो दीक्षा संतोष भी है और पावन भी।
दीक्षा के बाद अपवित्र होने का कोई उपाय नहीं है। वह असंभावना है। संन्यासी अपवित्र नहीं हो सकता, वह पावन है। प्रभु से जुड़ गई हो जरा सी भी धारा, तो फिर अपवित्रता का कोई उपाय नहीं है।
बुद्ध के भिक्षुओं में एक भिक्षु ने एक दिन बुद्ध को आकर कहा कि गांव में एक वेश्या है, उसने मुझे निमंत्रण दे दिया है कि मैं उसके घर रुकू इस वर्षाकाल में। बुद्ध ने कहा, जाओ, क्योंकि तुम पावन हो गए हो।
भिक्षुओं में बड़ी बेचैनी फैल गई। वेश्या बहुत सुंदरी थी। सम्राटों को भी उसके द्वार पर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह तो आप उचित नहीं कर रहे हैं। चार महीना वेश्या के घर में यह भिक्षु रहे, कहीं अपवित्र हो जाए! तो बुद्ध ने कहा, इसीलिए मैंने कहा। अगर पवित्र होता, तो रोकता। वह पावन है। चार महीने बाद बात होगी। उस भिक्षु ने कहा, तो कल मैं भी अगर कहूं कि किसी वेश्या का मुझे निमंत्रण मिल गया है, तो मुझे आज्ञा मिलेगी? बुद्ध ने कहा, तुम पवित्र भी नहीं हो। और
वेश्या तुम्हें निमंत्रण देगी, ऐसा नहीं है। तुम निमंत्रण मांग रहे हो। तुम वेश्या को निमंत्रण दे रहे हो। नहीं, .. तुम्हें आज्ञा नहीं मिलेगी।
स्वभावतः बेचैनी रही। चार महीने भिक्षुओं ने बहुत पता लगाने की कोशिश की कि वह भिक्ष, जो वेश्या के घर में ठहरा है, क्या कर रहा है, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। खिड़की, द्वार-दरवाजों से झांका होगा, पता लगाया होगा, अफवाहें उड़ाई होंगी। बुद्ध के पास रोज खबरें आने लगीं कि भ्रष्ट हो गया, बर्बाद हो गया। यह आपने क्या किया! बुद्ध सुनते रहे। चार महीने बाद भिक्षु आया तो वह अकेला नहीं आया था, वेश्या भी भिक्षुणी होकर आ गई थी। ____पवित्र अगर अपवित्र के संपर्क में आए, तो अपवित्र हो सकता है। पावन अगर अपवित्र के संपर्क में आए, तो अपवित्र पवित्र हो जाता है। वह पारस है, वह लोहे को भी सोना कर देता है।
दीक्षा संतोष है और पावन भी।
पावन के लिए अंग्रेजी में एक शब्द है प्योर, एक शब्द है होली। तो पावन का अर्थ है होली-दिव्य, पारस जैसी। कोई उपाय नहीं है उसे छूने का। उसे स्पर्श नहीं किया जा सकता। आकाश का मैंने कहा। जैसे आग है। आग को अपवित्र नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ भी डालो, वह जल जाएगा और राख हो जाएगा और आग पावन ही बनी रहेगी। इसलिए अपवित्र आग नहीं होती। मुर्दा जब जलता है चिता पर, तब भी वे लपटें अपवित्र नहीं होतीं, वे लपटें पावन ही होती हैं। असल में अपवित्र को डालो, तो जल जाता है, राख हो जाता है, आग को नहीं छू पाता। अस्पर्शित आग अलग खड़ी रह जाती है दूर। उसके पास पहुंचने की कोई गति नहीं है।
तो ऋषि कहते हैं, दीक्षा पावन भी है, संतोष भी। और ऐसी दीक्षा को जो उपलब्ध हैं, वे बारह सूर्यों का दर्शन करते हैं।
बारह सूर्यों का क्या अर्थ है? एक सूर्य को तो हम जानते हैं। बारह सूर्य केवल कहने का ढंग है।
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