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________________ निर्वाण उपनिषद एक जगह असंतोष नहीं जाता। वह परमात्मा से जो मिलन है, वहां भर असंतोष नहीं जाता। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि हमने कभी पूछा ही नहीं अपने से कि हम असंतुष्ट क्यों हैं। रास्ते पर एक कार गुजरती दिखाई पड़ जाती है, तो हम सोचते हैं, यह कार मिल जाए तो संतोष मिल जाएगा। एक महल दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते हैं, यह महल मिल जाए तो संतोष मिल जाएगा। एक सम्राट दिखाई पड़ जाता है, तो सोचते हैं, यह सिंहासन अपना हो तो संतोष मिल जाएगा। और कभी अपने से पूछा नहीं कि मेरे असंतोष का कारण क्या है। क्या कार न होने से मैं असंतुष्ट हूं? क्या महल न होने से मैं असंतुष्ट हूं ? पद न होने से मैं असंतुष्ट हूं ? तो फिर थोड़ा मन में सोचें। समझ लें कि मिल गई कार मिल गया महल, मिल गया सम्राट का पद। पूछें अपने से, मिल गया - संतोष आएगा? और तत्काल लगेगा कि कोई संतोष आ नहीं सकता। लेकिन हो सकता है कि यह सिर्फ हम सोच रहे हैं, इसलिए न मालूम पड़े। तो वह जो कार में बैठा है, उसकी शकल को देखें; वह जो महल में विराजमान है, उसके आसपास परिभ्रमण करें; तो वह जो पद पर बैठा हुआ है, उससे जाकर पूछें कि संतुष्ट हो ? उसे भी ऐसा ही लगा था एक दिन । वह भी हमारे जैसा ही आदमी है। उसे भी लगा था कि इस पद पर होकर संतोष हो जाएगा। फिर पद पर आए तो बहुत दिन हो गए, संतोष तो जरा भी नहीं आया। हां, अब उसे लग रहा है कि किसी और बड़े पद पर हों, तो संतोष हो जाए। ऐसे जीवन क्षीण होता, रिक्त होता, मिटता, टूटता । रेत में जाती है जैसे कोई सरिता, ऐसे ही हम खो जाते हैं और बिखर जाते हैं। हमने कभी ठीक से पूछा ही नहीं कि हम असंतुष्ट क्यों हैं। हमारे असंतोष का कुल कारण इतना है, कुल कारण ही इतना है कि हम अपनी जड़ों से टूट गए हैं, अपरूटेड हो गए हैं। हमें कोई पता ही नहीं कि हमारी जड़ें कहां हैं। हम किससे जुड़े हैं और किससे हम जीवन पाते हैं, उस मूल स्रोत का हमारा कोई संबंध मालूम नहीं पड़ता। हम अपनी खोपड़ी में कैद हो गए हैं, जड़ों से हमारा संबंध टूट गया है। हम सिर्फ विचार करते रहते हैं, अस्तित्व, एक्झिस्टेंशियल सत्ता से हमारा कहीं कोई मिलन नहीं होता। हम सिर्फ विचार करते रहते हैं, विचार में ही जी रहे हैं। और विचार का कोई भी मूल्य नहीं है, अस्तित्व का मूल्य है । होना पड़ेगा कहीं, सिर्फ सोचने से कुछ भी न होगा। तो ऋषि कहता है, दीक्षा संतोष है। क्योंकि जैसे ही मिलन होता है परमात्मा से, जरा सा क्षणभर के लिए भी संपर्क जुड़ जाता है, वैसे ही संतोष की वर्षा हो जाती है। कहीं कोई असंतोष नहीं रह जाता। खोजे भी नहीं मिलता। और दूसरी बात ऋषि कहता है, दीक्षा पावन भी । पावन बहुत कीमती शब्द है, उसे थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। पावन का अर्थ केवल पवित्र नहीं होता । भाषाकोश में वही लिखा है कि पावन का अर्थ पवित्र । लेकिन भाषाकोश की अपनी मजबूरियां हैं। पावन का अर्थ पवित्र होता है, लेकिन एक भेद के साथ, विद ए डिफरेंस । । पवित्र उसे कहते हैं, जो अपवित्र हो सकता है। पावन उसे कहते हैं, जिसके अपवित्र होने की कोई संभावना नहीं है। पवित्र उसे कहते हैं, जिसमें विकल्प है। अपवित्र भी हो सकता है। पावन उसे कहते हैं, जिसका पवित्रता स्वभाव है। जैसे सोना है, वह अशुद्ध भी हो सकता है, मिट्टी उसमें मिल सकती 76
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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