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________________ पावन दीक्षा-परमात्मा से जुड़ जाने की अब यह आदमी एक दुनिया में रह रहा है-हत्यारों की—जो इसका ही फैलाव है। किसी को प्रयोजन नहीं है, किसी को मतलब नहीं है। प्रोफेसर को मारेगा भी कौन और किसलिए मारेगा! मारने के लिए भी तो कोई कारण होना चाहिए और मरने की भी तो कोई योग्यता होनी चाहिए। प्रोफेसर को मारने, निरीह प्रोफेसर को मारने कौन जाएगा और किसलिए? इस बेचारे से कुछ भी तो बनता-बिगड़ता नहीं है। यह तो ऐसा है जैसे न हो तो बराबर। जिस दिन लोग स्कूल के मास्टरों की हत्या करने लगेंगे, उस दिन तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। इनसे ज्यादा निरीह तो प्राणी होता ही नहीं। ___मैंने उन्हें बहुत समझाया कि तुम्हें मारने का कोई कारण भी नहीं है। कौन परेशानी में पड़ेगा तुम्हें मारकर? पर उनको खयाल है कि सारी दुनिया उनकी हत्या करना चाहती है। और वे कारण खोज लेते हैं। वे देखते रहते हैं कि यह आदमी आ रहा है, किस तरह की चाल चल रहा है। इसकी आंख किस ढंग की हैं, कुछ संदिग्ध, ससपीशियस तो नहीं है। और उनको देखकर और उनके देखने के ढंग को और उनके खड़े होने को देखकर दूसरा आदमी बेचारा ससपीशियस हो जाता है। उनका जो ढंग है, वह ऐसा है कि दूसरा आदमी सहज नहीं रह सकता उनके साथ। वह भी थोड़ा...और उसकी बेचैनी उनको और-और, फिर विसियस शुरू हो जाता है-थोड़ी देर में ही वे दुश्मन की हालत में खड़ा कर देते हैं उस आदमी को। हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। हम सबने एक-एक दुनिया बना रखी है अपने चारों तरफ। वियोग उपदेश है। इस दुनिया से वियोग होना पड़े, छोड़ देना पड़े, तोड़ देना पड़े। यह गोरखधंधा है। यह बिलकुल मानसिक है, यह बिलकुल विक्षिप्तता है, पागलपन है। इस वियोग को ही ऋषियों का उपदेश कहा गया है। और इस वियोग के बाद ही संयोग हो सकता है परमात्मा से। वह जो परमात्मा का अस्तित्व है, जब हमारे सब प्रोजेक्टेड ड्रीम्स, हमारे प्रक्षिप्त स्वप्न गिर जाएं, हमारी सारी कल्पनाएं गिर जाएं, तो सत्य का उदघाटन है, तो संयोग हो सकता है। दीक्षा संतोष है और पावन भी। दीक्षा संतोषपावनम् च। दीक्षा संतोष है और पावन भी। दो बातें हैं। दीक्षा संतोष है। यह कभी खयाल में भी न आया होगा कि परमात्मा से मिल जाने के अतिरिक्त इस जगत में और कोई संतोष, कोई कंटेंटमेंट नहीं है। वियोग असंतोष है। जैसे किसी मां से उसका छोटा सा बेटा बिछुड़ गया हो और असंतुष्ट हो, ठीक वैसे ही हम अस्तित्व से बिछुड़ जाते हैं और असंतुष्ट रहते हैं। उस असंतोष में हम बहुत उपाय करते हैं संतोष के, लेकिन सब असफल होते हैं, सब फ्रस्ट्रेड हो जाते हैं। एक ही संतोष है, वह मिलन, संयोग उससे, जिससे हम छूट गए हैं-वापस उस मूल स्रोत से एक हो जाना। इसलिए संन्यासी के अतिरिक्त संतुष्ट आदमी होता ही नहीं। हो ही नहीं सकता। बाकी सब आदमी असंतुष्ट होंगे ही। वे कुछ भी करें, असंतोष उनका पीछा न छोड़ेगा। वे कुछ भी पा लें या खो दें, असंतोष से उनका संबंध बना ही रहेगा। वे धनी हों कि निर्धन; वे दीन हों, दरिद्र हों कि सम्राट; असंतोष उनका पीछा करेगा। असंतोष छाया की तरह पीछे लगा ही रहेगा, कहीं भी जाएं आप। सिर्फ 75 7
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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