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________________ निर्वाण उपनिषद हर आदमी अपने भीतर बीज लिए है अपने जगत का, और अपने चारों तरफ फैला लेता है। वियोग इस जगत से। निरंतर हम सुनते रहे हैं कि संन्यासी संसार को छोड़ देता है, लेकिन हमें मतलब पता नहीं है कि संसार का मतलब ही क्या होता है। इस प्रोजेक्टेड, यह जो प्रत्येक व्यक्ति अपने बाहर एक जगत का फैलाव करता है...वह सपने का जगत है, बिलकुल झूठा है। वह मेरा फैलाव है, मेरे मरने के साथ मिट जाएगा वह जगत। हर आदमी के मरने के साथ एक दुनिया मरती है। जो थी, वह तो बनी रहती है, लेकिन जो हमने फैलाई थी, बनाई थी, हमारा सपना थी, वह खो जाता है। . __संसार के त्याग का मतलब यह नहीं कि ये जो चट्टानें हैं इनको छोड़ देना, ये जो वृक्ष हैं इनको छोड़ देना या जो लोग हैं इनको छोड़ देना। संसार के त्याग का अर्थ है, वह जो प्रोजेक्शन है हमारा, प्रक्षेप है, उसे छोड़ देना। जो है उसे वैसा ही देखना, उस पर कुछ भी आरोपित न करना। अगर उसी वृक्ष के नीचे, जिसकी मैंने बात की, एक संन्यासी खड़ा हो, उसका कोई जगत नहीं है। संन्यासी का अर्थ है, जिसका कोई जगत नहीं है, चीजों को देखता है, जैसी वे हैं। अपनी तरफ से आरोपित नहीं करता, इंपोज नहीं करता, उन पर कुछ थोपता नहीं है। असल में किसी पर भी कुछ थोपना बड़ी हिंसा है। एक वृक्ष को मैं अपनी उदासी थोप दूं और कहूं कि वृक्ष बड़ा उदास मालूम पड़ता है, मैं हिंसा कर रहा हूं। चांद पर मैं अपनी प्रफुल्लता थोप दूं और कहूं कि चांद बड़ा आनंदित मालूम पड़ रहा है, क्योंकि मैं आज आनंदित हूं, क्योंकि लाटरी मुझे मिल गई है, तो मैं बड़ी हिंसा कर रहा हूं। और मैं एक झूठ का विस्तार कर रहा हूं। वियोग उपदेश। उपनिषदों का, ऋषियों का इतना ही उपदेश है कि इस संसार से—जो हम फैला लेते हैं-उससे, वियोग; उससे अलग हो जाना। एक संसार है, जो परमात्मा का फैलाव है; और एक संसार है, जो हमारा फैलाव है। हमारा फैलाव गिर जाना चाहिए, तो हम परमात्मा के संसार से संबंधित हो सकते हैं। जब तक मेरा अपना फैलाव है, तब तक संयोग कैसे होगा उससे, जो परमात्मा का है। मेरे एक मित्र थे। यनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे और ख्यातिनाम विद्वान थे अर्थशास्त्र के आक्सफोर्ड में भी प्रोफेसर थे, फिर यहां भारत के भी अनेक विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर थे। जब पहली दफे मेरी उनसे मुलाकात हुई तो बड़ी अजीब हुई। रास्ते से मैं निकल रहा था। सांझ का अंधेरा था, सूरज ढल रहा था, ढल गया था करीब-करीब। अंधेरा उतर रहा था। घूमने मैं निकला था रास्ते पर, हम दोनों अकेले थे, मैं उन्हें जानता नहीं था। जैसे ही मैं उनके पास पहुंचा, उन्होंने खीसे से निकालकर जोर से सीटी बजाई। और फिर दूसरे खीसे से निकालकर एक छुरा बाहर किया। नाम उनका मैं जानता था, परिचय कभी नहीं हुआ था। मैंने नमस्कार किया। मैंने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा कि दूर रहिए! मैंने पूछा, बात क्या है? फिर उनसे संबंध बना, मित्रता बनी, तो पता चला कि दो साल से वे भयभीत हैं और हर आदमी उन्हें लगता है कि उनकी हत्या करने आ रहा है। तो अकेले में किसी आदमी को देखकर वे दो इंतजाम अपने साथ रखते हैं-एक खीसे में सीटी रखते हैं जोर से बजाने के लिए, ताकि आसपास के लोगों को पता चल जाए। दूसरे खीसे में छुरा रखते हैं। V 74
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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