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________________ पावन दीक्षा - परमात्मा से जुड़ जाने की जाती है, तो सात जगत बड़ी चीजें हैं। घर बहुत छोटा है । उपद्रव सुनिश्चित है। ट्रेसपासिंग होगी ही । बाप की दुनिया बेटे की दुनिया पर चढ़ना चाहेगी, बेटे की दुनिया बाप की दुनिया पर चढ़ना चाहेगी। पत्नी पति की दुनिया पर कब्जा करना चाहेगी। इस जमीन पर इस समय कोई तीन अरब आदमी हैं, तो तीन अरब जगत हैं । जगत वह नहीं है, जो हमारे बाहर है; जगत वह है, जो हम निर्मित करते हैं। वह हमारा कंस्ट्रक्शन है। समझें। एक वृक्ष के पास आप भी बैठे हुए हैं। आप एक बढ़ई हैं। एक चित्रकार बैठा हुआ है, कवि बैठा हुआ है, एक प्रेमी बैठा हुआ है जिसे उसकी प्रेमिका मिली नहीं, और एक ऐसा प्रेमी बैठा हुआ है जिसे उसकी प्रेमिका मिल गई। तो बढ़ई के लिए वृक्ष में सिवाय फर्नीचर के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । वह वृक्ष एक ही है, लेकिन बढ़ई फर्नीचर की दुनिया में बैठा होगा वहां । चमार को आपके जूते के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । वह आपको आपके जूते के नंबर से पहचानता है। दर्जी की आपसे जो पहचान है, वह आपके कपड़े के नाप से है। चमार को चेहरा भी देखना नहीं पड़ता, सड़क पर गुजरते हुए लोगों के जूतों की हालत देखकर वह जानता है कि माली हालत क्या होगी। चेहरा देखने की जरूरत नहीं और बैंक बैलेंस देखने की भी जरूरत नहीं। जूते की हालत बता देती है कि यह आदमी किस हालत में होगा । उसकी अपनी दुनिया है। तो बढ़ेई अगर बैठा है वृक्ष के नीचे, तो वह वृक्ष उसके लिए संभावी फर्नीचर, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। उस वृक्ष में फूल नहीं खिलते, कुर्सियां मेजें लगती हैं। उसकी अपनी दुनिया है । उसके बगल में जो चित्रकार बैठा है, उसके लिए वृक्ष सिर्फ रंगों का एक खेल है । इधर इतने वृक्ष लगे हैं। साधारण आदमी को वृक्ष हरे दिखाई पड़ते हैं और हरा लगता है कि एक रंग है, लेकिन चित्रकार को हरे हजार रंग हैं— हजार शेड हैं हरे रंग के । वह चित्रकार को ही दिखाई पड़ते हैं, आम आदमी को दिखाई नहीं पड़ते। हरा यानी हरा, उसमें कोई और मतलब नहीं होता। लेकिन चित्रकार जानता है कि हर वृक्ष अपने ढंग से हरा है। दो वृक्ष एक से हरे नहीं हैं। हरे में भी हजार हरे हैं। पत्ता-पत्ता अपने ढंग से हरा है। तो जब चित्रकार देखता है वृक्ष को, तो उसे जो दिखाई पड़ता है, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। उसे पत्ते - पत्ते का व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है। वहीं उसके पास एक कवि बैठा है। तो वृक्ष उसके लिए काव्य बन जाता है। थोड़ी ही देर में वृक्ष खो जाता है और वह काव्य के लोक में प्रवेश कर जाता है। वह हमें कभी खयाल में नहीं आएगा कि कवि किस यात्रा पर निकल गया। उसका अपना जगत है। उसी खिले हुए फूलों से लदे हुए वृक्ष के नीचे, जहां कि वर्षा की तरह फूल गिर रहे हों, जिस प्रेमी को उसकी प्रेयसी नहीं मिल सकी है, वहां उसे फूल कांटे जैसे दिखाई पड़ते रहेंगे। फूल उदास मालूम होंगे, वृक्ष रोता हुआ और मरता हुआ मालूम होगा। इससे वृक्ष का कोई संबंध नहीं है। यह उसके अपने भीतर के जगत का विस्तार है, जो वह वृक्ष पर फैला देता है। पूर्णिमा का चांद भी उदास प्रेमी को उदा मालूम पड़ता है। प्रफुल्ल प्रेमी को अमावस की रात भी काफी चांदनी से भरी हुई मालूम होती है, काफी जाली होती है। हम अपने जगत को अपने भीतर से फैलाते हैं अपने चारों तरफ। एक प्रोजेक्शन है, एक प्रक्षेप है। 73
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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