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________________ निर्वाण उपनिषद वे इतने प्रकाश का भीतर अनुभव करते हैं जैसे कि उनके भीतर बारह सूर्य निकल गए हों। एक सूर्य नहीं, बारह । जैसे सारा उनका अंतर-आकाश सूर्यों से भर गया हो। वे इतने प्रकाशोज्ज्वल चेतना की अवस्था को उपलब्ध होते हैं, जैसे भीतर बारह सूर्य जग गए हों। लेकिन इस क्रम से प्रवेश हो : आश्रयरहित हो उनका आसन - निरालंब पीठ, संयोग हो उनकी दीक्षा – संयोगदीक्षा, संसार से छूटना हो उनका उपदेश, दीक्षा संतोष हो और पावन, तो वे बारह सूर्यो के, अनंत सूर्यों के दर्शन को उपलब्ध होते हैं। वे उस परम सूर्य को जानने में समर्थ हो जाते हैं, जो जीवन और चेतना का उदगम, आधार, आश्रय, सब कुछ है। और ये सूर्य कहीं बाहर खोजने नहीं जाना पड़ता है। ये सूर्य भीतर ही छिपे हैं। लेकिन हम भीतर जाते ही नहीं। बाहर है अंधकार, भीतर है प्रकाश । और बाहर कितने सूर्य हों तो भी अंधकार मिटता नहीं, शाश्वत है। खयाल किया आपने, बाहर खयाल किया आपने कि कितने ही सूर्य कितने अनंत वर्षों से प्रकाश देते हैं, लेकिन अंधकार शाश्वत है। सूर्य आते हैं, जाते हैं, जलते हैं, बुझते हैं। क्योंकि यह आप मत सोचना कि सूर्य सदा जलते रहते हैं । उनका भी जन्म है और मरण है। कितने ही सूर्य जन्मे और मिट गए। यह हमारा सूर्य बहुत नया है। इससे बुजुर्ग सूर्य भी हैं आकाश । अब तक वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई तीन अरब सूर्यों की गणना वे कर पाए हैं। यह भी अंत नहीं है, यहां तक हमारी अभी पहुंच है। उसके आगे भी सूर्यों का विस्तार है। ये तीन अरब सूर्यों में रोज कोई एकाध सूर्य मरता है, कोई नया सूर्य पैदा होता रहता है। अस्तित्व के किसी कोने में कोई सूर्य मरता है, बुझ जाता है, राख हो जाता है, बिखर जाता है। अस्तित्व के किसी दूसरे कोने में नया सूर्य पैदा हो जाता है। - अनंत- अनंत वर्षों से – शाश्वत कहें - सूर्य जलते हैं, लेकिन अंधेरा शाश्वत है। सूर्य आते हैं और चले जाते हैं, अंधेरे का कुछ बिगड़ता नहीं। सुबह सूर्य निकलता है, हमें लगता है अंधेरा खो गया। सिर्फ छिप जाता है। हमें दिखाई नहीं पड़ता, कहना चाहिए। या हमारी आंखें इतनी आवृत्त हो जाती हैं सूर्य के प्रकाश से कि अंधेरे को देख नहीं पातीं। सांझ सूरज थक जाता है, ढल जाता है। अंधेरा अपनी जगह है। अंधेरे को आना नहीं पड़ता। वह अपनी ही जगह है। खयाल किया आपने, प्रकाश को आना पड़ता है। अंधेरा अपनी जगह है, शाश्वत ठहरा हुआ है। सूर्य हमारा बुझ जाएगा, अंधेरा शाश्वत होगा। सूर्यों का जीवन है, अंधेरा शाश्वत मालूम होता है। अंधेरा कभी नहीं मिटता, सदा है। दीया जल जाता है, तो लगता है मिट गया। दीया बुझ जाता है, तो पता चलता है कि है । जरा भी कंपित भी नहीं होता । प्रकाश तो कंपता भी है, अंधेरा कंपता भी नहीं, अकंप । बाहर ऐसा है। अंधेरा शाश्वत है। प्रकाश क्षणभर को है। चाहे दीए का हो और चाहे सूर्यों का हो, उसका भी क्षण हैं, एक मोमेंट है और खो जाता है। भीतर इससे उलटी स्थिति है। प्रकाश शाश्वत है, अंधेरा क्षणभर का है। कितना ही हम अज्ञान में भटकें और अंधेरे में जाएं और कितने ही पापों में उतरें और नर्कों की यात्रा करें, भीतर के प्रकाश में कोई अंतर नहीं पड़ता, अकंप है। पाप आते हैं, चले जाते हैं। नर्कों की यात्रा होती है और समाप्त हो जाती है । और जिस दिन भी हम लौटकर भीतर पहुंचते हैं, हम पाते हैं वहां शाश्वत प्रकाश है। भीतर शाश्वत प्रकाश है, बाहर शाश्वत अंधेरा है। बाहर क्षणिक 78
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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