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पावन दीक्षा-परमात्मा से जुड़ जाने की
ऐसे संयोग का नाम दीक्षा है, जहां आपके आंगन की दीवारें गिर जाती हैं और विराट आकाश से मिलन हो जाता है। जहां बूंद अपनी सीमाएं छोड़ देती। साहस का कदम है यह-बहुत बड़े साहस का, कहें दुस्साहस का क्योंकि हम सबकी मनोदशा यही है कि हम अपनी सीमा को ही अपना अस्तित्व समझते हैं। सीमा में जो घिरा है, उसे नहीं; सीमा को ही अपना अस्तित्व समझते हैं। तो बड़े दुस्साहस की जरूरत पड़ेगी; अपने को छोड़ना, खोना, मिटना।
जीसस कहते थे जो अपने को बचाएगा, वह मिट जाएगा; और जो अपने को मिटा देगा, उसके मिटने का कोई भी उपाय नहीं। __जीसस के पास एक युवक आया एक रात, निकोडैमस। और निकोडैमस ने कहा कि मैं सब छोड़ने को तैयार हूं, मुझे स्वीकार कर लें, मुझे अंगीकार कर लें। जीसस ने कहा, तू स्वयं को छोड़ने को तैयार है? उसने कहा, और सब छोड़ने को तैयार हूं। तो जीसस ने कहा, लौट जा वापस। जिस दिन स्वयं को छोड़ने को तैयार हो, उस दिन आ जाना। क्योंकि हमें प्रयोजन नहीं कि तू कुछ और छोड़; हमें इतना ही प्रयोजन है कि तू अपने को छोड़। और अपने को कोई न छोड़े, तो संयोग नहीं होगा, दीक्षा नहीं होगी।
ये तो सब प्रतीक हैं कि संन्यासी का हम नाम बदल देते हैं, सिर्फ इसी खयाल से कि उसकी पुरानी आइडेंटिटी, उसका पुराना तादात्म्य छूट जाए। कल तक जिन सीमाओं से, जिस नाम से समझा था कि . मैं हूं, वह टूट जाए। उसके वस्त्र बदल देते हैं, ताकि उसकी इमेज बदल जाए; उसकी जो प्रतिमा थी कल
तक कि लगता था यह मैं हूं, यह कपड़ा, यह ढंग, वह टूट जाए। बाहर से शुरू करते हैं, क्योंकि बाहर हम जीते हैं। और बाहर से ही बदलाहट की जिसकी हिम्मत नहीं है, वह भीतर से बदलने की तैयारी कर पाएगा, यह जरा कठिन है।
__ मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, कपड़े तो बाहर हैं, बदलाहट तो भीतर की चाहिए। मैं उनसे पूछता हूं, कपड़े बदलने तक की हिम्मत तुम्हारी नहीं है, तुम भीतर की बदलाहट कर पाओगे? कपड़े बदलने में कुछ भी तो नहीं बदल रहा है, यह तो मुझे भी पता है। लेकिन तुम कपड़ा बदलने तक का साहस नहीं जुटा पाते और तुम कहते हो, हम आत्मा को बदल लेंगे। शायद अपने को धोखा देना आसान होगा आत्मा को बदलने की बात में, क्योंकि किसी को पता नहीं चलेगा कि बदल रहे हो कि नहीं बदल रहे हो। खुद को भी पता नहीं चलेगा। ये कपड़े पता चलेंगे।
लेकिन जो बदलने के लिए तैयार है, वह कहीं से भी शुरू कर सकता है। भीतर से शुरू करना कठिन है, क्योंकि भीतर का हमें कोई पता ही नहीं है। भोजन करते वक्त हम नहीं कहते कि यह तो बाहरी चीज है, क्या भोजन करना! पानी पीते वक्त नहीं कहते कि यह तो बाहरी चीज है, इसके पीने से क्या प्यास मिटेगी! प्यास तो भीतर है। ___ नहीं, यह हम नहीं कहते। लेकिन संन्यास लेना हो तो हम सोचते हैं, कपड़ा बदलने से क्या होगा, यह तो बाहर है। और आप जो हैं, बाहर का ही जोड़ हैं कुल जमा, फिलहाल। भीतर का तो कोई पता ही नहीं। उस भीतर का पता मिल जाए, इसी की तो खोज है। इमेज तोड़नी पड़ती है, प्रतिमा विसर्जित करनी पड़ती है। वह जो हम हैं अब तक, उसमें कहीं से तोड़ पैदा करनी पड़ती है। और अच्छा है कि सीमाओं से ही तोड़ शुरू करें, क्योंकि सीमाओं पर ही हम जीते हैं, अंतस में हम जीते नहीं हैं।
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