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निर्वाण उपनिषद
लेकिन हम अपने पर ही भरोसा करते चलते हैं। सोचते हैं, अपने को बचा लेंगे। कितने लोग सोचते रहे हैं! यहीं जहां आप बैठे हैं-एक-एक आदमी जहां बैठा है-वहां कम से कम दस-दस आदमियों
की कब्र बन चुकी है, कम से कम। जमीन का एक भी टुकड़ा नहीं है इंचभर, जहां दस कक्रं न बन चुकी हों। आदमियों की कह रहा हूं, और प्राणियों की तो बात अलग है। वे भी यही सोचते थे, जो आप सोच रहे हैं उन्हीं की जगह पर बैठकर, वहां दस आदमी गड़े हैं, जले हैं। वहां दस आदमियों की राख आपके नीचे है। वे भी यही सोच रहे थे, आप भी बैठकर यही सोच रहे हैं। आपके बाद भी उसी जगह और लोग बैठकर यही सोचते रहेंगे। क्या सोच रहे हैं? लेकिन एक बात नहीं देखते कि हमारे उपाय से कुछ भी तो उपाय नहीं होता। तो फिर हम निरुपाय होने का उपाय कर लें!
निरालंब पीठ का अर्थ है. निरुपाय जो हो गए। जो कहते हैं, हम कुछ भी न कर पाएंगे। तेरी मर्जी, उसके लिए हम राजी हैं। तो तू डुबा दे यहीं, तो यही हमारा किनारा है।
संयोग ही उनकी दीक्षा है। संयोगदीक्षा।
ये सूत्र ऐसे हैं जैसे केमिस्ट्री के, रसायन-शास्त्र के सूत्र होते हैं। इसलिए मैंने कहा कि टेलीग्रैफिक है उपनिषद।
संयोगदीक्षा।
बस, इतना कहा है दीक्षा के लिए कि संयोग ही उनकी दीक्षा है। टु बी इन कम्यूनियन इज़ द इनीसिएशन। परमात्मा के साथ जुड़ जाना ही उनकी दीक्षा है। परमात्मा के साथ सेतु खोज लेना, ब्रिज बना लेना; परमात्मा और अपने बीच आवागमन की एक जगह बना लेना ही उनकी दीक्षा है।
दीक्षित का अर्थ ही यही होता है। दीक्षा का अर्थ यही होता है कि मैं अब अपने तक नहीं जीऊंगा। . वह जो विराट है. जिससे मैं आया और जिसमें वापस लौट जाऊंगा. अब मैं उसके साथ संयक्त होकर जीऊंगा। अब मैं अपने को पृथक मानकर न जीऊंगा। अब मैं बूंद की तरह नहीं, सागर के साथ एक होकर जीऊंगा। __निश्चित ही, सागर के साथ एक होना खतरनाक है, क्योंकि बूंद मिट जाती है। लेकिन यह खतरा बहुत ऊपरी है। क्योंकि सागर के साथ बूंद तो मिट जाती है, लेकिन मिट जाती है इस अर्थों में कि सागर हो जाती है। क्षुद्रता टूट जाती है, विराट के साथ मिलन हो जाता है। लेकिन विराट के साथ हिम्मत तो जुटानी पड़ती है अपनी क्षुद्र सीमाओं को तोड़ देने की। ___ अगर अपने घर के आंगन को आकाश के साथ एक करना हो, तो घर के आंगन की दीवारें तो तोड़ ही देनी पड़ेंगी। अगर आप दीवारों को आंगन समझते थे, तो आपको लगेगा भारी नुकसान हुआ; और अगर दीवारों के बीच में घिरे हुए आकाश को आंगन समझते थे, तो समझेंगे कि लाभ ही लाभ है। वह आपकी समझ पर निर्भर करेगा। अगर आपने अपने अहंकार की सीमा को समझा था, यही मैं हूं, तो आप समझेंगे मिटे। अगर आपने अपने अहंकार के भीतर घिरे हुए शून्य को, चैतन्य को, भगवत्ता को समझा था, यही मैं हूं, तो दीवारें गिर जाने से अनंत के साथ एक हो गया। विराट उपलब्धि है फिर। खोना जरा भी नहीं है, पाना ही पाना है।
संयोगदीक्षा।
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